बहुदर्शिता कवि का संसार-दर्शन बड़ा ही विस्तृत होता है । प्रत्येक पदार्थ पर कवि की पैनी दृष्टि पड़ती है । प्रत्येक समय उसके नेत्रों के सामने नाना प्रकार के दृश्य नृत्य किया करते हैं । सर्वत्र ही वह सौंदर्य का अन्वेषण किया करता है । अलौकिक आनंद-प्रदान के प्रति पद-पद पर उसका प्रशंसनीय प्रयत्न होता रहता है । कवि का संसार-ज्ञान जितना ही विस्तृत और अनुभूत होता है, उतनी ही उसकी कविता भी चमत्कारिणी होती है । हर्ष का विषय है, देवजी का संसार-ज्ञान अत्युच्च अवस्था को पहुँचा हुआ था। यह बात उनके काव्य-ग्रंथों से प्रमाणित है । यहाँ पर हम उनके इस प्रकार के ज्ञान का किंचित् दिग्दर्शन कराते हैं- (१) भारतांतर्गत विविध प्रदेशों से उनका किसी प्रकार से परिचय अवश्य था । यह परिचय उन्होंने देश विशेष की स्वयं यात्रा करके प्राप्त किया था या और लोगों से सुनकर, यह निश्चय- पूर्वक नहीं कहा जा सकता; परंतु इसमें संदेह नहीं कि उनका दृष्टि-क्षेत्र विस्तृत अवश्य था । काश्मीर, तैलंग, उत्कल, सौवीर, द्रविड़, भूटान आदि देशों की तरुणियों का वर्णन देवजी ने अपने ग्रंथों में विस्तारपूर्वक किया है। दक्षिण देश की रमणियाँ संगीत- विद्या में कुशल होती हैं, यह बात देवजी निश्चयपूर्वक जानते थे। तभी तो वे कहते हैं- साँवरी, सुघर नारि महा सुकुमारि सोहै , मोहै मन मुनिन को मदन-तरंगिनी;
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