बहुदर्शिता
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अनगने गुनन के गरब गहीर मति ,
निपुन सँगीत-गीत सरस प्रसगिनी ।
परम प्रवीन बीन, मधुर बजावनगावै,
नेह उपजावै, यो रिझावै पति-संगिनी;
चारु, सुकुमार भाव भौंहन दिखाय "देव",
विंगनि, अलिंगन बतावति तिलंगिनी ।
(२) विविध देशों की जानकारी रखते हुए भी देवजी की
दृष्टि केवल धनी लोगों के प्रासाद ही की ओर नहीं उठती थी-
निर्धनी के नग्न निवास स्थान में भी देवजी सौंदर्य खोज निकालते
थे। देवजी समदर्शी थे । निम्न-श्रेणी की जातियों में भी वे एक
सत्कवि के समान कविता-सामग्री पाते थे । लाल रंग का कपड़ा
पहने, डलिया में मछलियाँ रक्खे कहारिनों को मछली बेचते पाठकों
ने अवश्य देखा होगा, पर उस दृश्य का अनोखा सौंदर्य पहले-पहल
देवजी को प्राप्त हुआ। उन्होंने कृपया छंद-बद्ध करके वही सौंदर्य
सबके लिये सुलभ कर दिया । सौंदर्य-अन्वेषण में वे निर्धन कहार
की भी उपेक्षा न कर सके-
जगमगे जोबन जगी है रँगमगी जोति ,
लाल लहँगा पै लाली ओढ़नी बहार की;
झाऊ की - झबरिया मैं - सफरी फरफराति ,
बेचति फिरति, बानी बोलै मनहार की ।
चाहेऊ न चाहै चहुँ ओर ते गहत बाहै ,
गाहक उमाहै, राहें रोकै सुविहार की ;
देखत ही मुख बिख-लहरि-सी श्रावै ,
लाग्यो जहर-सी हाँसी करे कहर कहार की ।
पर अत्युत्कृष्ट राधिका के विलास-प्रासाद का उदात्त वर्णन भी
देवजी की बुद्धि से वैसे ही विलसित है-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१२३
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