देव और विहारी
पामरिन पामरे परे हैं पुर पौरि लग ,
धाम-धाम धूपनि को धूम धुनियतु है;
श्रतर, अगर, चारु चोवा-रस, घनसार
दीपक हजारन अँध्यार लुनियतु है।
मधुर मृदग, राग-रग की तरंगन मै
___अग-अग गोपिन के गुन गुनियतु है;
"देव" सुख-साज, महराज, व्रजराज अाज
राधाजू के सदन सिधारे सुनियतु है।
(३) समय का वर्णन भी देवजी ने अत्युत्कृष्ट किया है।
ऋतुओं का क्रम-पूर्ण कथन बड़ा ही रमणीय हुआ है । निशा और
दिवस की सारी सुंदरता देवजी ने दिखलाई है । 'अष्टयाम' ग्रंथ की
रचना करके उन्होंने घड़ी-प्रहर तक का विशद विवेचन किया है। समय-
प्रवाह में बहनेवाले होली-दिवाली प्रादि उत्सवों का वर्णन भी देवजी
से नहीं छूटा है। प्रत्युत्कृष्ट शारदी ज्योत्स्ना का एक उदाहरण लीजिए-
आस-पास पुहिमि प्रकास के पगार सूझै,
बन न अगार, डीठि गली औ निबर तें;
पारावार पारद अपार दसौ दिसि बूड़ी,
चंड ब्रहमंड उतरात विधुवर ते।
सरद-जोन्हाई जह-जाई धार सहस
सुधाई साभा-सिंधु नभ सुभ्र गिरवर ते
उमड़ो परत जाति-मडल अखंड सुधा-
मंडल, मही मै विधु-मंडल-विवर तें।
फिर इसी ज्योत्स्ना की 'छीन छवि' एवं सूर्योदय के पूर्व प्राची
दिशा की रक्क अाभा पर कवि की प्रतिभा का विकास देखिए-
वा चकई को भयो चित-चीतो, चितौत चहूँ दिसि चाय सो नाची;
है गई छीन छपाकर की छवि, जामिनि-जोन्ह जगौ जम जाँची।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१२४
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