करती है, उसी वायु से प्रकंपायमान वृक्ष भी हहर-हहर शब्द करते
हैं । फिर क्या कारण है, जो बाँसोंवाला स्वर कानों को सुखद है
और दूसरे स्वर में वह बात नहीं है ? हमें प्रकृति में ऐसे ही नाना
भाँति के शब्द मिला करते हैं। इन प्रकृतिवाले शब्दों में से जो हमें
मीठे लगते हैं, उनसे ही मिलते-जुलते शब्द भाषा के भी मधर
शब्द जान पड़ते हैं । बालक के मुंह से कठिन, मिले हुए शब्द
आसानी से नहीं निकलते और जिस प्रकार के शब्द उसके मुंह से
'निकलते हैं, वे बहुत ही प्यारे लगते हैं। इससे निष्कप यही
निकलता है कि प्रायः मीलित वर्णवाले शब्द कान को पसंद नहीं
आते । इसके विपरीत सानुस्वार, अमीलित वर्णवाले शब्दों से
कर्णेद्रिय की तृप्ति-सी हो जाया करती है।
- जिस प्रकार बहुत-से शब्द मधुर हैं, उसी प्रकार कुछ
शब्द कर्कश भी हैं। इनको सुनने से कानों को एक प्रकार का लेश-सा
होता है। जिस भाषा में मधुर शब्द जितने ही अधिक होंगे,
वह भाषा उतनी ही मधुर कही जायगी ; इसके विपरीतवाली
कर्कशा । परंतु सदा अपनी ही भाषा बोलते रहने से, अभ्यास के
झारण, उस भाषा का कर्कश शब्द भी कभी-कभी वैसा नहीं जान
पड़ता और उसके प्रति अनुराग और हठ भी कभी-कभी इस प्रकार
के कर्कशत्व के प्रकट कहे जाने में बाधा डालता है। अतएव यदि
भाषा की मधुरता या कर्कशता का निर्णय करना हो, तो वह भाषा
किसी ऐसे व्यक्ति को सुनाई जानी चाहिए, जो उसे समझता न
हो । वह पुरुष तुरंत ही उचित बात कह देगा, क्योंकि उसके कानों
का पक्षपात से अभी तक बिलकुल लगाव नहीं होने पाया है।
मिष्टभाषी का लोक पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बात को भी
यहाँ बता देना अनुचित न होगा । जब कोई हमीं में से मधुर स्वर
में बात करता है, तो हमको अपार आनंद आता है। एक सुंदर
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१३
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