पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८ देव और विहारी यह बात ऊपर दिखलाई जा चुकी है कि कविता के माध्यम शब्द हैं। ये शाब्दिक प्रतिनिधि कवि के विचारों को ज्यों-का-त्यों प्रकट करते हैं। लोक का नियम यह है कि प्रतिनिधि की योग्यता के अनुसार ही कार्य सहज हो जाता है। शब्दों की योग्यता में विचार प्रकट करने का सामर्थ्य है। यह काम करने के लिये शब्द-समूह वाक्य का रूप पाता है । विचार प्रकट कर सकना कविता-वाक्य का प्रधान गुण होना चाहिए। इस गुण के विना काम नहीं चल सकता। इस गुण के सहायक और भी कई गण हैं। उन्हीं के अंतर्गत शब्द- भाधुर्य भी है । अतएव यह बात स्पष्ट है कि शब्द-माधुर्य विचार प्रकट कर सकनेवाले गुण की सहायता करता है। एक उदाहरण हमारे इस कथन को विशेष रूप से स्पष्ट कर देगा। __कहावत है, एक राजा के यहाँ एक कवि और एक व्याकरण के पंडित साथ-हो-साथ पहुंचे । विवाद इस बात पर होने लगा कि दोनों में से कौन सुंदरतापूर्वक बात कर सकता है। राजा के महल के सामने एक सूखा वृक्ष लगा था। उसी को लक्ष्य करके उस पर एक-एक वाक्य बनाने के लिये उन्होंने कवि एवं व्याकरण के पंडित को प्राज्ञा दी। पंडित ने कहा- शुष्क वृक्ष तिष्ठत्यने और कविजी के मुख से निकला-'नीरसतरुरिह विलसति पुरतः। दोनों के शब्द-प्रतिनिधि वही काम कर रहे हैं। दोनों ही वाक्यों में अपक्षित विचार प्रकट करने का सामर्थ्य भी है। फिर भी मिलान करने पर एक वाक्य दूसरे वाक्य से इस बात में अधिक हो जाता है कि उसे कान अधिक पसंद करते हैं। इस पसंदगी का कारण खोजने के लिये दूर जाने की आवश्यकता नहीं। दूसरे वाक्य की शब्द-मधुरता की सिफारिश ही इस पसंदगी का कारण है । व्याकरण के पंडित का प्रत्येक शब्द मिला हुआ है । टवर्ग का प्रयोग एवं संधि करने से वाक्य में एक अद्भुत विकटता विराजमान है। इसके विपरीत