प्रेम
१-देव
सच्चे प्रेमी देव ने प्रेम का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है। यों
तो उनके सभी ग्रंथ सर्वत्र प्रेममय हैं, परंतु 'प्रेम-चंद्रिका' नामक
ग्रंथ में उन्होंने प्रेम का वर्णन कुछ क्रम-बद्ध-रूप में किया है। प्रेम
का लक्षण, स्वरूप, माहात्म्य, उसके विविध भेद सभी का कवि
ने मार्मिकता-पूर्ण वर्णन किया है। विषयमय और शुद्ध प्रेम में
क्या अंतर है, यह भी स्पष्ट दिखला दिया है । प्रेम-परीक्षा कितनी
कठिन है-उसमें उत्तीर्ण होना किस प्रकार दुस्तर है, यह सब
बात पहले से समझा दी है। प्रेम के प्रधान सहायक, नेत्र और
मन का विशेष रूप से वर्णन किया है।
प्रेम-घर में ठहरना कितना कठिन है, इसका उल्लेख करते हुए
कवि कहता है-
"एकै अभिलाख लाख-लाख भाँति लेखियत-
देखियत दूसरो न "देव" चराचर मैं ;
जासों मनु राँचै, तासों तनु-मनु राँचै ;
___ रुचि-भरिकै उपरि जाँचै, साँचै करि कर मैं ।
पाचन के आगे आँच लागे ते न लौट जाय,
साँच देइ प्यारे की सती-लौं बैठे सर मैं ;
प्रेम सों कहत कोऊ-ठाकुर, न ऐंठौ सुनि,
बैठौ गढ़ि गहरे, तौ पैठौ प्रेम-घर मैं।"
सर (सरा-चिता) पर बैठी हुई सती जिस प्रकार, प्रेमावृत
होने के कारण, पांचभौतिक तापों की कुछ परवा नहीं करती, उसी
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५०
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