पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५१

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प्रेम १५६ प्रकार प्रत्येक सच्चे प्रेमी को निर्भय रहना चाहिए । जब प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने को तैयार हो, तभी ठाकुर को प्रेम-घर में प्रवेश करना चाहिए। प्रेम क्या वस्तु है ? इसका निर्णय भी देवजी ने किया है। उनका विशद लक्षण पढ़िए- जाके मद-मात्यो, सो उमात्यो ना कहूँ है, कोई बूड़यो, उछल्यो ना तरयो सोभा-सिधु-सामुहै; पीवत ही जाहि कोई मारथो, सो श्रमर भयो; __बौरान्यो जगत जान्यो, मान्यो सुख-धामु है। चख के चषक भरि चाखत ही जाहि फिरि चाख्यो ना पियूष, कछु ऐसो अभिरामु है ; दंपति-सरूप ब्रज औतरयो अनूप सोई, ___ "देव" कियो देखि प्रेम-रस प्रेम-नाम है। प्रेम को इस प्रकार समझाकर देवजी कहते हैं- नेम-महातम मेटि कियो प्रभु प्रेम-महातम प्रातम अर्पनु । इस प्रकार देवजी प्रेम-माहास्य को नियम-माहात्म्य के उपर दिख- लाते हैं। वे कहते हैं- को करै कूकन चूकन सों मन, मूक भयो मुख प्रेम-मिठाई ? देवजी प्रेम को पाँच भागों में विभक्त करते हैं-सानुराग, सौहार्द, भक्ति, वात्सल्य और कार्पण्य । ये सभी प्रकार के प्रेम देवजी ने सोदाहरण वर्णित किए हैं। सुदामाजी के प्रेम में सौहार्द, भक्ति एवं कार्पण्य-भाव का मिला हुआ वर्णन सराहनीय हुश्रा है- कहै पतनी पति सों देखि गृह दीपति को हरै बिन सपिति बिपति यह को मेरी ?