पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मन टटकी लगनि चटकीली उमँगनि गौन, लटकी लटक नट की-सी कला लटक्यो । त्रिबली पलोटन सलोट लटपटी सारी, चोट चटपटी, अटपटी चाल चटक्यो । चुकुटी चटक त्रिकुटीतट मटक मन भृकुटी कुटिल कोटि भावन मैं भटक्यो । टटल बटल बोल पाटल कपोल "देव" ____दीपति-पटल मैं अटल बँकै अटक्यो । इन दशाओं में विविध रंग बदलते हुए, मन को ठीक रास्ते पर खाने का सदुद्योग करते हुए देवजी उसकी उपमा उस हाथी से दे डालते हैं, जो रात के अंधकार में विकल हो रहा हो । देखिए- - "देवजू" या मन मेरे गयंद को रैनि रही दुख गाढ़ महा है। प्रेम-पुरातन मारग-बीच टकी अटकी हग सैल सिला है। आँधी उसास, नदा अँसुवान की, बूड़यो बटोही, चलै बलुका है। साहुनी लै चित चीति रही अरु पाहुनी लै गई नींद बिदा है। इस मन-गयंद को इस गाढ़ दुःख में छोड़कर, अपनी की हुई विविध अनीतियों का उसे स्मरण दिलाते हुए देवजी एक बार फिर मन को स्पष्ट फटकार देते हैं । फटकार क्या, मन की मिट्टी पलीद करते हैं। कवि एक बार फिर मन पर राज्य करता हुआ दिखलाई पड़ता है- प्रेम-पयोधि परो गहिरे अभिमान को फेन रयो गहि रे मनः कोप-तरंगन सों बहि रे पछिताय पुकारत क्यों बहिरे मन ? "देवजू" लाज-जहाज ते कूदि रह्यो मुख नूदि, अजौं रहि रे मनः जोरत, तोरत प्रीति तुही अब तेरी, अनीति तुही सहि रे मन । अनीति सहने से ही काम न चल सकेगा; देवजी मन को दंड देने के लिये भी तैयार हैं। प्रात्मवश पाकर बदले की प्रबल