मन
तथा उसको अपना सर्वस्व-मीत माना । कोमलता की दृष्टि
से उसकी तुलना मोम, नवनीत एवं घृत से की गई; फिर
मन-मंदिर बनाया और ढहाया गया। मन एक बार दूलह-रूप में
भी दिखलाई दिया; फिर मन की चंचलता, विषय-तन्मयता एवं नट
की-सी सनाई का उल्लेख हुअा। मन दुर्ग एवं गयंद के समान भी
पाया गया। उसके न बहकाए जाने पर भी विवाद उठा। फिर
उसको उसकी अनीति सुझाई गई एवं दंड देने का भय दिखलाया
गया। अंत में विषयासक्त होने के कारण उसकी घोर निंदा की
गई। देवजी ने इस प्रकार एक मन का विविध प्रकार से वर्णन
करके अपनी प्रगाढ़ काव्य-चातुरी का नमूना दिखाया एवं उच्च
विचारों के प्रयोग से लोकोपयोग पर भी ध्यान रक्खा ।
२-विहारी
कविवर विहारीलाल ने भी मन की मनमानी आलोचना की है,
पर हमारी राय में उन्होंने मन को उलझाया अधिक है-सुल-
झाने में वे कम समर्थ हुए हैं। उनके वर्णनों में हृदय को द्रवीभूत
करने की अपेक्षा कौतुक का आतंक अधिक रहता है। तो भी उनके
कोई-कोई दोहे बड़े ही मनोरम हुए हैं-
कीन्हें हूँ कोटिक जतन अब कहि, काढ़े कौन ?
भो मन मोहन-रूप मिलि पानी में को लौन ।
क्यों रहिए, क्यों निबहिए ? नीति नह-पुर नाहिं ;
लगालगी लोयन करहिं नाहक मन बाँध जाहिं ।
पति-ऋतु-गुन-औगुन बढ़त मान-माह को सीत;
जात कठिन है अति मृदुल तरुनी-मन-नवनीत ।
ललन-चलन मुनि चुप रही, बोली आपु न ईठि;
राख्यो मन गाढ़े गरे, मनो गली गलि डीठि।
मन की अपेक्षा हृदय पर विहारीलाल ने अच्छे दोहे कहे हैं-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१६९
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
