पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७०

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देव और विहारी छप्यो. नेह कागद-हिए, भयो लखाय न टाँकु । बिरह-तचे उघरयो सु अब सेहुँड को सो आँकु । पजरथो आगि बियोग की, बह्यो बिलोचन-नीर; आठौ जाम हिये रहै उड़यो उसास-समीर । वे ठादे उमदात उत, जल न बुझै विरहागि t; जासों है लाग्यो हियो, ताही के हिय लागि ।

  • इस 'छप्यो' शब्द पर संजीवन-भाष्यकार अत्यंत रुष्ट है-

इस पाठ को 'नितांत अयुक्त' ( २७६ पृष्ठ ) बतलाते हैं । 'छप्यो' के स्थान पर वे 'छता' पाठ स्वीकार करते हैं और 'छतो नेह' का अर्थ 'प्रीति थी' करते हैं। पर हमको उस पाठ में कोई हानि नहीं समझ पड़ती। 'छप्यो' का अर्थ यदि 'छिपा' न लेकर 'छप गया-मुद्रित हो गया' लें, तो अर्थ-चमत्कार का पूर्ण निर्वाह होता है । स्नेह हृदय-पत्र पर छप गया था--मुद्रित हो गया था, परंतु अंक दिखलाई न पड़ते थे। आँच (विरह की ऑच ) पाकर अर्थात् सेंके जाने पर वे-सेंहुड़ के दूध से लिखे अक्षरों के समान-दिखलाई पड़ने लगे । 'छाप' का प्रचार हमारे यहाँ बहुत प्राचीन समय से है । छाप का लगाना यहाँ मुद्रण-कला- आविष्कार के पहले प्रचलित था । प्रिंटिंग ( Printing ) का पर्यायवाची शब्द, 'छापना' इसी छाप से निकला प्रतीत होता है । विहारीलाल स्वयं 'छापा' का प्रयोग जानते थे ; यथा "जपमाला छापा तिलक सरै न एको काम ।" अतः छप जाने के अर्थ में यदि उन्होंने 'छप्यो' का प्रयोग किया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। हमें छप जाना अर्थ ही विशेष उपयुक्त समझ पड़ता है। पांडेय प्रभुदयाल ने अपनी सतसई-टीका में इस अर्थ का निर्देश किया भी है। पाठक इस पाठांतर का निर्णय स्वयं कर लें । "जल न बुझै बड़वागि" के स्थान पर सतसई की अन्य कई प्रतियों में "जल न बुझै बिरहागि" पाठ है । इससे तात्पर्य यह है कि विरहाग्नि