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मन १७६ उपर्युक्त पद्यों में मन और रूप की लवण-जलवत् संपूर्ण एकता, नेत्रों के दोष से मन का बंधना, शिशिर में तरुणी-मन-नवनीत का मृदुल से कठोर हो जाना, हृदय की काग़ज़ से समता आदि भनेक चमत्कारिणी उक्कियाँ हैं। बल से शांत नहीं होने की—यह जलन तो हृदय से लिफ्टने से ही मिटगी । बड़वागि के साथ 'जल' का अर्थ 'समुद्र-जल' करना पड़ता है, जिससे जल-शब्द असमर्थ हो जाता है । हमको “बिरहागि" पाठ ही अधिक उपयुक्त अँचता है।