पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नेत्र १-देव रूप-रस-पान करानेवाले नेत्रों का वर्णन भी देवजी ने अनोखे ढंग से किया है । कवि लोग प्रायः जिन-जिन पदार्थों से नेत्रों की तुलना करते हैं, उन सभी से देवजी ने एक ही स्थान पर तुलना कर दी है-एक ही छंद में सब कुछ कह डाला है। नेत्रों का सौंदर्य, विनोदशालीनता, प्रमोद-क्रोध-स्फुरण, हास्य एवं लज्जा प्रादि सभी विकारों का निर्देश कर दिया है। मृग) के समान चौंकना, चकोर के समान चकित दिखलाई पड़ना, मछली के समान उछलना, भ्रमर के समान छककर स्थिर होना, काम-बाण) के समान चलकर घाव करना, खंजन-पक्षी के समान किलोल करना, कुमुद-कुसुमे के समान संकलित होना एवं कमल के समान प्रफुल्लित होना आदि वर्णनों का, जिन्हें कवि-जन नेत्रों के संबंध में करते हैं, देवजी ने एक ही छंद में संदर सन्निवेश कर दिया है । यह प्रयत्न यथासंख्य अलंकार द्वारा भूषित होने के कारण और भी रमणीय हो गया है । कितनी अच्छी शब्दयो- जना है- चंद्रमुखि, तर चष चितै चकि, चेति, चपि , चित्त चोरि चले सुचि साचनि डुलत हैं; सुदर, सुमंद, सविनोद, "देव" सामोद , सरोष संचरत, हाँसी-लाज बिलुलत हैं। हरिन, चकोर, मीन, चंचरीक, मैन-बान , रंजन, कुमुद, कंज-पुंजन तुलत हैं।