१८” चौंकत, चकत, उचकत औ छकत, चले जात, कलोलत संकलत, मुकुलत हैं। नैनों की तुरंग, झरोखा, अंकुश, दलाल एवं क़ज़ाक से भी उपमा दी गई है, पर विस्तार-भय से यहाँ उन सबका उल्लेख नहीं हो सकता । 'योगिनी अँखियाँ' का रूपक एवं नेत्रों का सावन- भादौं होना पाठकों को अन्यत्र दिखलाया गया है। विविध वर्ण के कमलों से देवजी ने नेत्रों की तुलना की है। क्रोध-वश रक्त-वर्ण नेत्र यदि रक्त-कमल के समान दिखलाई पड़ते हैं, तो “पाछी उन- मील नील सुभग सरोजान की तरल तनाइयत तोरन तिते-तितै" का दृश्य भी कजल-कलित नेत्रों का चमत्कार स्पष्ट कर देता है। आँखों के अश्र-प्रवाह का कवि ने नाना प्रकार की उक्तियों का प्राश्रय बेकर वर्णन किया है। एक नायिका की निम्नलिखित उक्ति कितनी सुहावनी और हृदय-स्पर्शिनी है- ____रावरो रूप भरयो आँखियान ; ' भयो, सु भयोः उमड़या, सु ढखा परे । नायिका कहती है-मैं रोती नहीं हूं। अपनी आँखों में मैंने आपका रूप भर रक्खा था । वह जितना भर सका, उतना तो भरा है; परंतु जो अधिक था, वह उमड़ पड़ा और अब वही बहा जाता है। व्रत रखनेवाली 'उपासी प्यासी आँखों का रूप-पारण' भी पाठक पढ़ चुके हैं। अब उनका मधु-मक्खी होना भी पढ़ लीजिए। धार मैं धाय धंसी निरधार है, जाय फंसी, उकसी न अँधेरी ; री! अँगराय गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न, घिरीं नहिं घेरी। "देव" कछू अपनो बसु ना, रस-लालच लाल चितै भई चैरी; बाग ही बूड़ि गई पँखियाँ आँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी । रस-लालची मधु-मक्षिका से नेत्रों का जैसा कुछ यह साम्य है, सो तो हई है । पर कहाँ इतनी क्षुद्र मधु-माक्षका और
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