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चौंकत, चकत, उचकत औ छकत, चले
जात, कलोलत संकलत, मुकुलत हैं।
नैनों की तुरंग, झरोखा, अंकुश, दलाल एवं क़ज़ाक से भी
उपमा दी गई है, पर विस्तार-भय से यहाँ उन सबका उल्लेख
नहीं हो सकता । 'योगिनी अँखियाँ' का रूपक एवं नेत्रों का सावन-
भादौं होना पाठकों को अन्यत्र दिखलाया गया है। विविध वर्ण के
कमलों से देवजी ने नेत्रों की तुलना की है। क्रोध-वश रक्त-वर्ण
नेत्र यदि रक्त-कमल के समान दिखलाई पड़ते हैं, तो “पाछी उन-
मील नील सुभग सरोजान की तरल तनाइयत तोरन तिते-तितै"
का दृश्य भी कजल-कलित नेत्रों का चमत्कार स्पष्ट कर देता है।
आँखों के अश्र-प्रवाह का कवि ने नाना प्रकार की उक्तियों का प्राश्रय
बेकर वर्णन किया है। एक नायिका की निम्नलिखित उक्ति कितनी
सुहावनी और हृदय-स्पर्शिनी है-
____रावरो रूप भरयो आँखियान ;
' भयो, सु भयोः उमड़या, सु ढखा परे ।
नायिका कहती है-मैं रोती नहीं हूं। अपनी आँखों में मैंने
आपका रूप भर रक्खा था । वह जितना भर सका, उतना तो भरा
है; परंतु जो अधिक था, वह उमड़ पड़ा और अब वही बहा जाता
है। व्रत रखनेवाली 'उपासी प्यासी आँखों का रूप-पारण' भी
पाठक पढ़ चुके हैं। अब उनका मधु-मक्खी होना भी पढ़ लीजिए।
धार मैं धाय धंसी निरधार है, जाय फंसी, उकसी न अँधेरी ;
री! अँगराय गिरी गहिरी, गहि फेरे फिरी न, घिरीं नहिं घेरी।
"देव" कछू अपनो बसु ना, रस-लालच लाल चितै भई चैरी;
बाग ही बूड़ि गई पँखियाँ आँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी ।
रस-लालची मधु-मक्षिका से नेत्रों का जैसा कुछ यह साम्य
है, सो तो हई है । पर कहाँ इतनी क्षुद्र मधु-माक्षका और
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७३
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