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देव और विहारी
कहाँ विशाल काव्य 'मतंग' ! जिसकी समता मक्खी से की
जाय, उसी की मतंग से भी की जाय, यह कैसी विषमता
है ! पर कवि जगत् में सभी कुछ संभव है । देवजी कहते
लाज के निगड़, गड़दार अड़दार चहुँ,
चौंकि चितवनि चरखीन चमकारे हैं;
बरुनी अरुन लीक, पलक झलक फूल,
झूमत सघन घन धूमत घुमारे है।
रंजित रजोगुन, सिंगार-पुंज, कुंजरत,
अंजन सोहन मनमोहन दतार हैं।
"देव" दुख-मोचन सकोच न सकत चलि,
___ लोचन अचल ये मतंग मतवारे हैं।
देवजी नेत्र-वर्णन में आँखों से सखी का भी काम लेते हैं । जल
ला-लाकर सखियाँ जिस प्रकार नायिका के ताप का उपशमन करती
हैं, उसी प्रकार नेत्रों से अविरल अश्रु-प्रवाह विरहाग्नि को बहुत
कुछ दबाए रहता है । कविवर कहते हैं-
सखियाँ है मेरी मोहिं आँखियाँ न सींचतीं तो
याही रतिया मैं जाती छतिया छटक है।
देवजी की प्रेम-गर्विता एवं गुण-गर्विता नायिका अपने प्यारे कृष्ण
को नेत्रों में कजल और पुतली के समान रखती हैं यथा "साँवरे-
लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो” और “आँखिन
मैं पुतरी है रहै" इत्यादि।
२-विहारी
विहारीलाल ने नेत्रों का वर्णन देव की अपेक्षा कुछ अधिक किया
है। उनके अनेक दोहे नितांत विदग्धता-पूर्ण और मर्मस्पर्शी भी
है,परंत नेत्रों के वर्णन में भी कौतुहल और कौतुक का चमत्कार
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७४
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