पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७४

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1८२ देव और विहारी कहाँ विशाल काव्य 'मतंग' ! जिसकी समता मक्खी से की जाय, उसी की मतंग से भी की जाय, यह कैसी विषमता है ! पर कवि जगत् में सभी कुछ संभव है । देवजी कहते लाज के निगड़, गड़दार अड़दार चहुँ, चौंकि चितवनि चरखीन चमकारे हैं; बरुनी अरुन लीक, पलक झलक फूल, झूमत सघन घन धूमत घुमारे है। रंजित रजोगुन, सिंगार-पुंज, कुंजरत, अंजन सोहन मनमोहन दतार हैं। "देव" दुख-मोचन सकोच न सकत चलि, ___ लोचन अचल ये मतंग मतवारे हैं। देवजी नेत्र-वर्णन में आँखों से सखी का भी काम लेते हैं । जल ला-लाकर सखियाँ जिस प्रकार नायिका के ताप का उपशमन करती हैं, उसी प्रकार नेत्रों से अविरल अश्रु-प्रवाह विरहाग्नि को बहुत कुछ दबाए रहता है । कविवर कहते हैं- सखियाँ है मेरी मोहिं आँखियाँ न सींचतीं तो याही रतिया मैं जाती छतिया छटक है। देवजी की प्रेम-गर्विता एवं गुण-गर्विता नायिका अपने प्यारे कृष्ण को नेत्रों में कजल और पुतली के समान रखती हैं यथा "साँवरे- लाल को साँवरो रूप मैं नैनन को कजरा करि राख्यो” और “आँखिन मैं पुतरी है रहै" इत्यादि। २-विहारी विहारीलाल ने नेत्रों का वर्णन देव की अपेक्षा कुछ अधिक किया है। उनके अनेक दोहे नितांत विदग्धता-पूर्ण और मर्मस्पर्शी भी है,परंत नेत्रों के वर्णन में भी कौतुहल और कौतुक का चमत्कार