नेत्र
१३
भरा हुआ है। अतिशयोति का आश्रय भी कहीं-कहीं पर ऐसा
है कि उस पर "रसिक सुजान सौ जान से निदाँ हैं।" देखिए-
बर जीते सर मैन के, ऐसे देखे मै न;
हरिनी के नैनान ते हरि, नीके ये नैन ।
वारों बलि, तो दृगन पर अलि, खजन,मृग,मीन,
आधी डीठि चितौनि जहि किए लाल आधीन ।
इस दोहे से देवजी का ऊपर-सबसे पहले-दिया हुआ
छंद मिलाइए और देखिए कि यथासंख्य का चमत्कार किसने कैसा
दिखलाया है !
सबुही तन समुहात छिन, चलत सबन दै पीठि ;
वाही तन ठहराति यह किबलनुमा-लौं डीठि ।
यह दोहा देवजी के "आँखियाँ मधु की मखियाँ भई मेरी"वाले
छंद के सामने कैसा ठहरता है ! 'रस-लालच' का फंदा कितना प्रौढ़
अथच सराहनीय है !
देखत कछु कौतुक इतै ? देखौ नेकु निहारि ;
कब की इकटक डटि रही टटिया अँगुरिन फारि ।
विहारीलाल की ग्रामीण नायिका बड़ी ही बेढब जान पड़ती
है। उसकी ढिठाई तो देखिए ! अंगुलियों से टटिया फाड़कर घर
रही है । देवजी के वर्णन में घोर ग्रामीणा भी ऐसा कार्य करते न
दिखलाई पड़ेगी।
बाल काहि लाली भई लोयन कोयन-माहिं ?
लाल, तिहारे हगन की परी हगन में छाँह ।
इस दोहे के जवाब में देवजी का अकेला यह चतुर्थ पद कितना
रोचक है-
काहू के रंग रंगे हग रावरे,
___रावरे रंग रंगे हग मेरे।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७५
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