देव-विहारी तथा दास १६७ है। इतना ही नहीं, शीशी भी केवल अंचल के स्पर्शमात्र से ही पिघल उठती है। (११) मीचु-सिचान (बाज़ ) जीव ( हंस) तक इस कारण नहीं पहुंच पाता कि उसके पास-विरहिणी के शरीर में इतना विरह-ताप है कि उसमें उसके झुलस जाने का डर है। बस, प्राण- रक्षा इसी कारण हो रही है। प्राण-रक्षा के इस चतुरता-पूर्ण उपाय में विहारीलाल ने रमणीयता भर दी है। दासजी मांचु को विरहिणी के निकट तक न आने देने के लिये चारों ओर आँसुत्रों का सागर उमड़ाते हैं, दूर-दूर तक अंग की ज्वालमालाओं को फैलाते हैं तथा विरहोच्लास से वायुमंडल में भीषण तूफ़ान उठाते हैं। इस प्रकार इन तीन कारणों से मौत की पहुँच विरहिणी तक नहीं होने देते। (१२) दृष्टि ने कुच-गिरि की खूब ऊँची चढ़ाई चढ़ डाली, पर थक गई। फिर भी अभीष्ट मुख की चाह में वह आगे चल पड़ी। परंतु बीच ही में उसका पैर फिसल गया और वह ठोढी के गड्ढे में ऐसी गिरी कि बस, अब वहाँ से उसका निकलना ही नहीं होता। चिबुक-गाड़ में इतना सौंदर्य है कि एक बार निगाह वहाँ पड़ती है, तो फिर हटती ही नहीं। दोहे का बस यही सार है । एक रूपक के आश्रय में विहारीलाल ने उसको रमणीय बना दिया है । दास- जी का मन भी ठोदी की गाड़ के फेर में पड़ गया है। पहले वह अंधकार- मय बालों में भटकता रहा, वहाँ से निकला, तो आनन-पानिप में डूबने की नौबत आई । यहाँ से जान बची, तो इसने अधरों का बेहद मधु-पान किया । इसमें वह ऐसा बेहोश हुआ कि अपनी इच्छा से ठोढ़ी के गड्ढे में जा गिरा । अब कहिए, इससे कैसे निस्तार मिले? (१३) रुखाई-रूपी धूप के प्रभाव से बाला-बल्ली सूख गई है।
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