२१० देव और विहारी जीव रह्यो मिलिबई कि आस, कि आसहू पास अकास रह्यो भरि । जा दिन ते मुख फारे, हरे हॅसि, हारे हियो जु लियो हरिजू हरि । देव गोस्वामी तुलसीदास की “छिति, जल, पावक, गगन, समीरा- पंच-रचित यह अधम सरीरा" चौपाई इतनी प्रसिद्ध है कि पाठकों को यह समझने में कुछ भी विलंब न होना चाहिए कि मनुष्य- शरीर पंचतत्त्व (पृथ्वी, जल, तेज, वायु ओर आकाश )-निर्मित है। देवजी कहते हैं-मुख धुमाकर, ईषत् हास्यपूर्वक जिस दिन से हरिजू ने हृदय हर लिया है, उस दिन से सम्मिलनमान की आशा से जीवन बना है ( नहीं तो शरीर का ह्रास तो खूब ही हुआ है)। उसासें लेते-लेते वायु का विनाश हो चुका है, अविरल अश्रु-धारा- प्रवाह से जल भी नहीं रहा है। तेज भी अपने गुणसमेत बिदा हो चुका है, शरीर की कृशतः और हलकापन देखकर जान पड़ता है कि पृथ्वी का अंश भी निकल गया और शून्य आकाश चारों ओर भर रहा है अर्थात् नायिका विरह-वश नितांत कृशांगी हो गई है। अश्रु-प्रवाह और दीर्घोच्छ्वास अपनी चरम सीमा पर पहुंच गए हैं। अब उनका भी अभाव है । न नायिका साँसें लेती है और न नेत्रों से आँसू ही बहते हैं । उसको अपने चारों ओर शून्य आकाश दिख- लाई पड़ रहा है। यह सब होने पर भी प्राण-पखेरू केवल इसी प्राशा से अभी नहीं उड़े हैं कि संभव है, प्रियतम से प्रेम-मिलन हो जाय, नहीं तो निस्तेज हो चुकने पर भी जीवन शेष कैसे रहता ? विहारी और देव दोनों ही ने पूर्वानुराग-विरह का जो विकट दृश्य चित्रित किया है, वह पाठकों के सम्मुख उपस्थित है। सहृदयता की दुहाई है ! क्या विहारी देव के 'कदम-ब-कदम' चल रहे हैं ? षोडशवर्षीय बाल कवि देव का यह अपूर्व भाव-विलास उनके 'भाव- विलास' ग्रंथ में विलसित है।
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