विरह-वर्णन २-प्रवास "नायक-नायिका का एक बेर समागम होः अनंतर जो उनका विछोह होता है, उसे विप्रयोग विप्रलंभ श्रृंगार कहते हैं । शाप और प्रवास इसी के अंतर्गत माने जाते हैं।" (रसवाटिका, पृष्ठ ७३) ह्या ते हाँ, ह्वॉ ने यहाँ नैको धरति न धीर; निसि-दिन डाढी-सी रहै; बाड़ा गाढ़ी पीर । विहारी "भावार्थ-यहाँ से वहाँ जाती है और वहाँ से यहाँ अाती है। ज़रा भी धीरज नहीं धरती । रात-दिन जली-सी रहती है । विरह- पीड़ा अत्यंत बढी हुई है।........."कल नहीं पड़ती किसी करवट किसी पहलू उसे।” (विहारी को सतसई, पहला भाग, पृष्ठ १६१) बालम-बिरह जिन जान्यो न जनम-भरि, बरि-बरि उठै ज्यों-ज्यों बरसै बरफ राते; बोजन डुलावत सखी-जन त्यों सीत हूँ मैं, सौति के सराप, तन-तापन तरफराति । "देव" कहै--साँप्सन ही असुवा सुखात मुख, निकसै न बात, एसी सिसकी सरफरााते; लौटि-लौटि परत करौट खाट-पाटी ले-ले , सूखे जल सफरी ज्यों सज पै फरफराति । खाट की पाटी से लगकर जिस प्रकार नायिका लेट-लोट पड़ती है-करवटें बदलती है, वह दृश्य लविवर देवजी को ऐसा जान पड़ता है, मानो शुष्क-स्थल पर रक्खा हुआ मत्स्य जल के बिना फड़फड़ा रहा हो। 'डाढी-सी रहै' और “बरि-बरि उठ ज्यों-ज्यों बरसै बरफ राति” में कौन विशेष सरस है, इसका निर्णय पाठक करेंगे; पर कृपा करके भाष्यकार महोदय यह अवश्य बतलावें कि
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