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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२

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भूमिका २५ "ब्रजभाषा-सरीखी रसीली वाणी को कविता-क्षेत्र से बहिष्कृत करने का विचार केवल उन हृदय-हीन अरसिकों के ऊपर हृदय में उठना संभव है, जो उस भाषा के स्वरूप-ज्ञान से शून्य और उसकी सुधा के आस्वादन से बिलकुल वंचित हैं।......... क्या उसकी प्रकृत माधुरी और सहज मनोहरता नष्ट हो गई है ?" ___ यहाँ तक तो यह प्रतिपादित हो चुका कि शब्दों में भी मधुरता है, इस मधुरता के साक्षी कान है, जिस भाषा में अधिक मधुर शब्द हों उसे मधुर भाषा कहना चाहिए, कविता के लिये मधुर शब्द आवश्यक हैं एवं ब्रजभाषा बहु-सम्मति से मधुर भाषा है और माधुरी के वश उसने "सत्पद्य-पीयूष के अक्षय स्रोत प्रवाहित किए हैं।" अब इस संबंध में हमें एक बात और कहनी है। कविता के लिये तन्मयता की बड़ी जरूरत है। प्रिय वस्तु के द्वारा अभीष्ट-साधन आसानी से होता है । मधर शब्दावली सभी को प्रिय लगती है । इसलिये यह बात उचित ही जान पड़ती है कि मधुर वाक्यावली में बद्ध कवि-विचार अंगूर के समान सब प्रकार से अच्छे लगेंगे। अच्छे वस्त्रों में कुरूप भी अनेकानेक दोष छिपा लेता है, पर संदर की सुंदरता तो और भी बढ़ जाती है। इसी प्रकार अच्छे भाव किसी भाषा में हों, अच्छे लगेंगे पर यदि वे मधर भाषा में हों, तो और भी हृदय-ग्राही हो जायगे । भाव की: उत्कृष्टता जहाँ होती है, वहीं पर सत्काव्य होता है और भाषा की मधुरता इस भावोत्कृष्टता पर पालिश का काम देती है । भाषा की चमचमाहट भाव को तुरंत हृदयंगम कराती है। ब्रजभाषा की सरस, मधुर वर्णावली में यही गुण है। यहाँ पर इन्हीं गणका उल्लेख किया गया है । जो लोग इन सब बातों को जानते हुए भी भाषा के माधुर्य-गुण को नहीं मानते, उनको हमें दासजी का केवल यह छंद सुना देना है-