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देव और विहारी
पति परदेश जाने को है । नायिका इसकी चर्चा सुन चुकी है।
विहारी की प्रवत्स्यत्पतिका स्वयं अपना हाल कह रही है ।
देव की प्रवत्स्यत्प्रेयसी का वर्णन सखी कर रही है । वचन-
वियोग की भीषण अवस्था के दो चित्र उपस्थित हैं। दोनों को
परखिए।
८-आगतपतिका
प्रीतम के पाते न-आते ही विरहिणी शुभ शकुन-सूचक नेत्र-स्पंदन
से उमंगकर अपने कपड़े बदलने लगी-
मृग-नयनी हग की फरक, उरु उलाह, तनु फूल ;
बिनहीं पिय-आगम उमँगि, पलटन लगी दुकूल ।
विहारी
उधर प्रिय की अवाई सुनकर देवजी की नायिका जैसी आनंदित
हो उठी है, वह भी दर्शनीय है । विरह-अवसान समीप है-
धाई खोरि-खोरि तै बधाई पिय प्रावन की
सुनि, कोरि-कोरि रस भामिनि भरति है;
मोरि-मोरि बदन निहारति बिहार-भूमि
घोरि-घोरि आनंद घरी-सी उघरति है ।
"देव" कर जोरि-जोरि बंदत सुरन, गुरु,
लोगनि के लोरि-लोरि पॉयन परति है;
तोरि-तोरि माल पूरै मोतिन की चौक,
निवछावरि को छोरि-छोरि भूषन धरति है।
देव
उभय कविवरों के विरह-वाईन के जो उदाहरण पाठकों की सेवा
में ऊपर उपस्थित किए गए हैं, उनसे पाठक अनुमान कर सकते हैं
कि हृदय-द्राची वर्णन किसके अधिक हैं। जिन अन्य कई दशाओं
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२१८
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