२२६ देव और विहारी पति परदेश जाने को है । नायिका इसकी चर्चा सुन चुकी है। विहारी की प्रवत्स्यत्पतिका स्वयं अपना हाल कह रही है । देव की प्रवत्स्यत्प्रेयसी का वर्णन सखी कर रही है । वचन- वियोग की भीषण अवस्था के दो चित्र उपस्थित हैं। दोनों को परखिए। ८-आगतपतिका प्रीतम के पाते न-आते ही विरहिणी शुभ शकुन-सूचक नेत्र-स्पंदन से उमंगकर अपने कपड़े बदलने लगी- मृग-नयनी हग की फरक, उरु उलाह, तनु फूल ; बिनहीं पिय-आगम उमँगि, पलटन लगी दुकूल । विहारी उधर प्रिय की अवाई सुनकर देवजी की नायिका जैसी आनंदित हो उठी है, वह भी दर्शनीय है । विरह-अवसान समीप है- धाई खोरि-खोरि तै बधाई पिय प्रावन की सुनि, कोरि-कोरि रस भामिनि भरति है; मोरि-मोरि बदन निहारति बिहार-भूमि घोरि-घोरि आनंद घरी-सी उघरति है । "देव" कर जोरि-जोरि बंदत सुरन, गुरु, लोगनि के लोरि-लोरि पॉयन परति है; तोरि-तोरि माल पूरै मोतिन की चौक, निवछावरि को छोरि-छोरि भूषन धरति है। देव उभय कविवरों के विरह-वाईन के जो उदाहरण पाठकों की सेवा में ऊपर उपस्थित किए गए हैं, उनसे पाठक अनुमान कर सकते हैं कि हृदय-द्राची वर्णन किसके अधिक हैं। जिन अन्य कई दशाओं
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