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विरह-वर्णन २२० के वर्णन हमने उद्धृत नहीं किए हैं, उनमें देवजी के प्रलाप आदि दशा के वर्णन, हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं, विहारीलाल-वर्णित उक्त दशा के वर्णनों से कहीं बढ़कर हैं। हम अतिशयोक्ति को बुरा नहीं कहते; परंतु स्वभावोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के सत्प्रयोग हमें अतिशयोक्ति से अधिक प्रिय अवश्य हैं । आदरास्पद हाली साहब की भी यही सम्मति समझ पड़ती है एवं अँगरेज़ी-साहित्य के प्रधान लेखक रस्किन का विचार भी यही है । दोनों कवियों की कविताएँ, तुलना-कसौटी पर कसी जाकर, निश्चय दिलाती हैं कि विहारी देव की अपेक्षा अतिशयोक्ति के अधिक प्रेमी हैं एवं देव स्वभावोक्कि. और उपमा का अधिक प्रादर करनेवाले हैं।