पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तुलना १-विषमतामयी . हमारे उभय कविवरों ने शृंगार-वर्णन में कवित्व-शक्ति को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। कहीं-कहीं पर तो उनके ऐसे वर्णन पढ़कर अवाक् रह जाना पड़ता है। पाठकों के मनोरंजन के लिये यहाँ पर दोनों कवियों की पाँच-पाँच अनूबी उक्लियाँ उद्धत की जाती हैं। ध्यान से देखने पर जान पड़ेगा कि एक कवि की उक्ति दूसरे कवि की वैसी ही उक्ति की पूर्ति बहुत स्वाभाविक ढंग से करती है- (१) एक गोपी ने कृष्णचंद्र की मुरली इस कारण छिपाकर रख दी कि जब मनमोहन इसे न पाकर ढूँढ़ने लगेंगे, तो मुझसे भी पूछेगे। उस समय मुझसे-उनसे बातचीत हो सकेगी और मेरी बात करने की लालसा पूरी हो जायगी। मनमोहन ने मुरली खोई हुई जानकर इस गोपी से पूछा, तो पहले तो इसने सौगंद खाई, फिर भ्र-संकोच द्वारा हास्य प्रकट किया, तत्पश्चात् देने का वादा किया, पर अंत में फिर इनकार कर गई। मनमोहन को इस प्रकार उलझाकर वह उनकी रसीली वाणी सुनने में समर्थ हुई । इस अभिप्राय को विहारीलाल ने निम्नलिखित दोहे में प्रकट किया है- बतरस-लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ; सौंह करै, भौहन हँस, देन कहै, नटि जाय । जान पड़ता है, कविवर देवजी को विहारीलाल की इस गोपी की ढिठाई अच्छी नहीं लगी। अपने मनमोहन को इस तरह तंग होते देखकर उनको बदले की सूझी । बदला भी उन्होंने बडोने बेढब लिया ! घोर शीत पड़ रहा है । र्योदय के पूर्व ही गोषियों