२४२
देव और विहारी
पड़े । “आप बड़े आदमी हैं, खूब ही भोले हैं, हमें तो आप अनेक
प्रकार से अच्छे लगते हैं" यह कथन करके-ऐसा व्यंग्य-बाण छोड़-
कर पहले वह नायक को मानो संभलने का इशारा करती है-उसे
निर्दोषता प्रमाणित करने का अवसर देती है । फिर वह बड़े कौशल
से, शिष्ट-जनानुमोदित वाक्प्रणाली का अनुसरण करते हुए, नायक
पर जो दोष लगाना है, उसे स्पष्ट शब्दों में कहती है-"भाग बड़ो
बरु भामती को, जेहि भामते लै रंग-भौन बसाए ।" ऊपर से मृदु,
परंतु यथार्थ में कैसी तीखी वचन-बाण-वर्षा है ! कदाचित् नायक
अपना निरपराधत्व सिद्ध करने का कुछ उद्योग करे, इसलिये नायिका
उसको तुरंत "भेष भलोई भली बिध सो करि" का स्मरण दिला-
कर किंकर्तव्य-विमूढ़ कर देती है। सिटपिटाए हुए नायक को उत्तर
देते न देखकर वह फिर एक करारी चोट देती है- "भूलि परे किधों
काहू भुलाए ?" यह ऐसी मार थी कि नायक पानी-पानी हो जाता
है । तब शरण में पाए को जिस प्रकार कुछ टेढ़ी-मेढ़ी बात कहकर
छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार नायिका भी "लाल भले हौ, भली
सिख दन्हिीं, भली भई श्राजु भले बनि श्राए" कहकर नायक को
छोड़ देती है । देव इस भाव के प्रस्फुटन में क्या विहारी से दबते
दिखलाई पड़ते हैं ?
(४) कोहर-सी एडीन की लाली देखि सुभाय ;
पाय महावर देन को आप भई बेपाय ।
विहारी
आई हुती अन्हवावन नाइनि, सोधे लिए वह सूधै सुभायनि ;
कंचुकी छोरी उतै उपटैबे को ईगुर-से अँग की सुखदायनि ।
"देव" सुरूप की रासि निहारति पाँय ते सीस लौं, सीस ते पायनि:
है रही ठौर ही ठाढ़ी ठगी-सी, मै कर ठोढ़ी धरे टकरायनि ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२३४
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
