तुलना २४३ विहारीलाल कहते हैं कि "महावर के समान एड़ियों की स्वाभा- विक लाली देखकर (जो नाइन ) महावर देने आई थी, वह 'बेपाय' हो गई"। नाइन ऐसा रक्त वर्ण देखकर और महावर-प्रयोग की निष्प्रयोजनता सोचकर चकित रह गई। दोहे में 'नाइन' पद अपनी ओर से मिलाना पड़ता है। छोटे-से दोहे में यदि विहारीलाल पर न्यूनपद-दूषण का अभियोग न लगाया जाय, तो, हमारी राय में, वह क्षम्य है । देवजी के वर्णन में भी नाइन प्राती है और उसी प्रकार सौंदर्य-सुषमा देखकर चकित हो जाती है। दोहे में 'कोहर-सी एडीन' की लाली दिखलाई पड़ती है, तो सवैया में "ईगुर-से अंग की सुखदायनि" है। दोहे में वह नाइन 'बे-पाय' हो जाती है, तो सवैया में "कै रही ठौर ही ठाढ़ी ठगी-सी" दिख- लाई पड़ती है। लेकिन देवजी उसे “पाँय ते सीस लौं, सीस ते पायनि सुरूप की रासि" भी दिखलाते हैं एवं एक बात और भी होती है । वह यह कि अपार सौंदर्य देखकर नाइन का चकित होना नायिका भाँप लेती है और इसी कारण 'हँसै कर ठोढ़ी धरे ठकुरायनि' भी छंद में स्थान पाता है। सौंदर्य-छटा देख सकने का सुयोग, अनु- प्रास-चमत्कार, भाषा का स्वाभाविक प्रवाह और माधुर्य देखते हुए देवजी का सवैया दोहे से उठता हुआ प्रतीत होता है। (५) पिय के ध्यान गही-गही, रही वही है नारि ; आप आप ही पारसी लखि रीझति रिझवारि । विहारी राधिका कान्ह को ध्यान धरै, तब कान्ह कै राधिका के गुन गावै ; त्यो अँसुवा बरसै, बरसाने को, पाती लिखै, लिखि राधे को ध्यावै। राधे बै जाय घरीक में "देव", सु-प्रेम की पाती ले छाती लगावै । आपुने आप ही मै उरम, सुरभै बिरुमै, समुझै, समुझावै ।
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