२४४ देव और विहारी दोनों के भाव-सादृश्य का अनुपम दृश्य कितना मनोरंजक है। प्रियतम के ध्यान में मग्न सुंदरी प्रियतममय हो रही है । दर्पण में अपना स्वरूप न दिखलाई पड़कर प्रियतम के. रूप का नेत्रों के सामने नाचता हुआ प्रतिबिंब उसे प्रत्यक्ष- सा हो रहा है । उसी रूप को निहार-निहारकर वह रीझ. रही है। विहारीलाल ने इस भाव को अनुप्रास-चमत्कार-पूर्ण दोहे में बड़ी ही सफाई से बिठलाया है । 'रही वही है नारि' को देवजी ने स्पष्ट कर दिया है । राधिकाजी श्रीकृष्ण का ध्यान करती हैं। इसमें वे कृष्णमय हो जाती हैं। अब जो कुछ कृष्ण करते रहे हैं, वही वे भी करने लगती हैं । कृष्णचंद्र राधिका का गुण-गान किया करते थे; इस कारण राधिकाजी, जो इस समय कृष्ण हो रही हैं, राधिकाजी का गुणानुवाद करती हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि वे अपने मुँह अपनी ही प्रशंसा कर रही हैं। इस समय तो उनमें तन्मयता है-वे राधिका न रहकर कृष्ण हो रही हैं । फिर उन्हीं कृष्ण-रूप से अश्रुपात करती हुई वे राधिकाजी को प्रेम-पत्र लिखती हैं । राधिका को प्रेम-पत्र मिलने पर कैसा लगेगा-उसका वे कैसे स्वागत करेंगी, इस भाव को व्यक्त करने के लिये कृष्णमय, पर वास्तविक राधिका एक बार फिर राधिका हो जाती हैं। पर इस अवसर पर भी उन्हें यही ज्ञान है कि मैं वास्तव में कृष्ण हूँ और पत्रिका-स्वागत-दशा का अनुभव करने के लिये राधिका बनी हूँ अर्थात् राधिकाजी को राधिका बनते समय इस बात का स्मरण नहीं है कि वास्तव में मैं राधिका देखिए, कितनी ध्यान-तन्मयता है और कवि की प्रतिभा का प्रवेश भी कितना सूक्ष्म है ! "पिय के ध्यान गही-गही, रही वही है नारि" के शब्द-चमत्कार एवं भाव को देवजी का "आपुने
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