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तुलना
'श्रापु ही मैं उरझै, सुरझै, विरुझै, समुझै, समुझावै” कैसा समु-
ज्ज्वल कर रहा है ! "राधे 8 जाय घरीक में "देव", सु प्रेम की
पाती लै छाती बगावै" विहारीलाल के "आप आप ही आरसी
लखि रीझति रिझवारि" से हृदय पर अधिक चोट करनेवाला
है। दोनों भाव एक ही हैं, कहने का ढंग निराला है । तल्लीनता
का प्रस्फुटन दोहे की अपेक्षा सवैया में अधिक जान
पड़ता है।