पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा भाषा का सबसे प्रधान गुण या खूबी यह समझी जाती है कि उसमें लेखक या कवि के भाव प्रकट कर सकने की पूर्ण क्षमता हो। जिस भाषा में यह गुण नहीं, वह किसी काम की नहीं। भाव प्रकट करने की पूर्ण क्षमता के विना भाषा अपना काम ही नहीं कर सकती। दूसरा गुण इससे भी अधिक आवश्यक है। भाषा का संगठन ऐसा होना चाहिए कि लेखक या कवि के अभिप्राय तक पहुँचने में अल्पतम समय लगे। यह न हो कि समर्थ भाषा में जो भाव व्यक्त है, उस तक पहुँचने में बेचारा पाठक इधर-उधर भटकता फिरे। भाषा का तीसरा प्रशंसनीय गुण यह है कि मतलब की बात बहुत थोड़े शब्दों में प्रकट हो जाय । इस प्रकार जो भाषा भाव प्रकट करने में पूर्णतया समर्थ है, पाठक को सीधे मार्ग से उस भाव तक तत्काल पहुँचा देती है, किंतु यह कार्य पूरा करने में अधिक और अनावश्यक शब्दों का आश्रय भी नहीं लेती, वही उत्तम भाषा है । ऐसी भाषा का प्रवाह नितांत स्वाभाविक होगा। उसके प्रत्येक पद से सरलता का परिचय मिलेगा। कृत्रि- मता की परछाहीं भी उसके निकट नहीं फटकने पावेगी। परिस्थिति के अनुकूल उसमें कहीं तो मृदुता के दर्शन होंगे, कहीं लोच की बहार दिखलाई पड़ेगी, और कहीं-कहीं वह खूब स्थिर और गंभीर रूप में सुशोभित होगी। उत्तम भाषा में अलंकारों का प्रादुर्भाव आप-ही-श्राप होता जाता है । लेखक या कवि को उनके लाने के लिये भगीरथ-प्रयत्न नहीं करना पड़ता। साथ ही वे अलंकार, भाव की स्पर्धा में, अपनी अलग सत्ता भी नहीं स्वीकृत करते । वे बेचारे anema