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देव और विहारी

हार भी सर्वदा अपेक्षित है। हमारे हृदय-पटल पर श्रानंद और सौंदर्य के प्रति सदा सहानुभूति खचित रहती है। इस सहानुभूति का सूचक शब्द-समुदाय प्रकृति में कोमलता और सुकुमारता अभिव्यक्त करने- वाला प्रसिद्ध है। कोमलता और सुकुमारता की समता मधुरता में संपुटित है । यही माधुर्य है । सुष्टु योजना से यह अभिप्राय है कि कवि की भाषा स्वाभाविक रीति से प्रवाहित होती रहे-पद्य में होने.के कारण शब्दों के स्वाभाविक स्थान छुड़ाकर उन्हें अस्वाभाविक स्थानों परन बिठलाना पड़े एवं उनके रूप-परिवर्तन में भी गड़बड़ी न हो। निरी तुकबंदी में सुष्टु योजना की छाया भी नहीं पड़ती। औचित्य से यह अभिप्राय है कि पद्य में बेढंगापन न हो अर्थात् वयं विषय का अंग विशेष आवश्यकता से अधिक या न्यून न वर्णन किया जाय। ऐसा न हो कि "मुँह से बड़े दाँत" दिखलाई पड़ने लगें। सब यथास्थान इस प्रकार सजित रहें कि मिलकर सौंदर्य-वर्धन कर सकें। इन सबके ऊपर अर्थ-निर्वाह परमावश्यक है। कविता-संबंधी रीति-प्रदर्शक ग्रंथों में अर्थ-व्यक्त-गुण का विवेचन विशेष रीति से दिया गया है। प्रसाद-गुण से पूरित पद्य का भाव पाठक तत्काल समझ लेता है। जहाँ भाव समझने में भारी श्रम उठाना पड़ता है, वहाँ क्रिष्टता-दोष माना गया है।

कविवर विहारीलालजी की सतसई खाँद की रोटी के समान होने के कारण सर्वथा मीठी है ही; अब पाठक कृपया कविवर देवजी की भाषा के भी ऊपर उद्धत नमूने पढ़कर निश्चय करें कि उनका भाषाधिकार कैसा था ? उनकी योजना कैसी थी ? उनका औचित्य कहाँ तक ग्राह्य था? अर्थ-व्यक्त-गुण वे कहाँ तक अभिव्यक्त कर सके ? इसी प्रकार यह भी विचारणीय है कि उद्धत पद्यों में दोषावह रीति से उन्होंने उसी को बार-बार दोहराकर पुनरुक्ति-दोष से अपनी उनियों को मलिन तो नहीं कर दिया है ? क्या उनके पों