पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२६३

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परिशिष्ट २७१ क्योंकि मैं 'देव को कवियों का शिरमौर' मानता हूँ। संवत् १६०० के पश्चात् महाराजा मानसिंह ने 'द्विजदेव' के नाम से कविता करने में अपना गौरव समझा । इस उपनाम से इस बात की सूचना मिलती है कि उस समय देव-नाम का खूब आदर था। संवत् ११३४ में शिवसिंह सेंगर ने शिवसिंह-सरोज ग्रंथ प्रका- शित किया । उसमें उन्होंने देवजी को इन शब्दों में स्मरण किया है-“यह महाराज अद्वितीय अपने समय के भाम मम्मट के समान भाषा-काव्य के प्राचार्य हो गए हैं। शब्दों में ऐसी समाई कहाँ है, जिनमें इनकी प्रशंसा की जाय।" संवत् १९५०-५१ में सबसे पहले बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपने भारतजीवन-यंत्रालय से देवजी के भाव-विलास, अष्टयाम और भवानी-विलास ग्रंथ प्रकाशित किए। संवत् १९५४ में कविराज मुरारिदान का 'जसवंत-जसोभूषण' प्रकाशित हुआ। इसमें भी देवजी के उत्तमोत्तम छंदों के दर्शन होते हैं। संवत १९५६ और ५८ में क्रम से 'सुख-सागर-तरंग' और 'रस- विलास' भी मुद्रित हो गए। इसके पश्चात् पूज्यपाद मिश्रबंधुओं ने हिंदी-नवरत्न' में देवजी पर प्रायः ४५ पृष्ठ का एक निबंध लिखा । इसमें लेखकों ने तुलसी और सूर के बाद देवजी को स्थान दिया है। संवत् १९७० में काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने 'देव-ग्रंथावली' के नाम से देवजी के सुजान-विनोद, राग- रखाकर एवं प्रेमचंद्रिका नामक तनि ग्रंथ और भी प्रकाशित कराए। हमारा विचार है, तब से देवजी की कविता के प्रति लोगों की श्रद्धा बहुत अधिक हो गई है । यहाँ पर यह कह देना भी अनुचित न होगा कि विगत दो-एक साल के भीतर एकाध विद्वान् ने देव की कविता की समालोचना करते हुम यहाँ तक लिखा है कि देव-जैसे तुक्कड़ सरस्वती-कुपुत्र को महाकदि कहना कविता का अपमान करना है । विदेशी विद्वानों में डॉक्टर ग्रियर्सन