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देव और विहारी
दान आप किसकी आज्ञा से वसूल कर रहे हैं ? राजकर्मचारी को
देखकर कृष्ण के और साथी डर से इधर-उधर तितर-बितर हो
जाते हैं। राजपौरिया कृष्ण का हाथ पकड़कर उन्हें अपने वश में
कर लेता है । इसके बाद निगाह के मिलते-न-मिलते छबीली का
सारा छन दूर हो जाता है। बजामयी मुस्कुराहट के साथ-साथ भी
ढीली पड़ जाती हैं । कितना स्वाभाविक चित्र है!.
राजपौरिया को रूप राधे को बनाय लाई,
गोपी मथुरा ते मधुबन की लतानि मैं;
टेरि कह्यो कान्ह सों-चलो हो, कंस चाहे तुम्हें,
___ काके कहे लूटत सुने हो दधि-दान मैं ।
संग के न जाने, गए, डगरि डराने 'देव",
स्याम ससवाने से पकरि करे पानि मैं ;
छूटि गयो छल सो छबीली की बिलोकनि मैं
। ढीली भई भौंहँ वा लजीली मुसकानि मैं।
(३) एक और ऐसा ही चित्र लीजिए । व्याख्या की आवश्य-
कता नहीं समझ पड़ती-
लोग-लोगाइनिहोरी लगाई, मिलामिली-चारु न मेटत ही बन्यो ।
"देवजू" चंदन-चूर-कपूर लिलारन लै-लै लपेटत ही बन्यो ।
ए इहि ओसर पाए इहाँ, समुहाय हियो न समेटत ही बन्यो;
कीनी अनाकनियो मुख मोरि, पैजोरि भुजा भटू भेटत ही बन्यो ।
(५) एक स्थान पर देवजी ने आँखों के अंतर्गत पुतली को
कसौटी का पत्थर मानकर किसी के स्वर्ण-तुल्य गौरांग शरीर की
उस पर परीक्षा करवाई है। कसौटी पर जैसे सोने को घिसते हैं,
उसी प्रकार मानो पुतली में भी गोराई का कर्षण हुआ है और
ससकी एक रेखा परीक्षा होने के बाद भी पुतली-कसौटी पर नर्ग
रह गई है-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२७४
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