परिशिष्ट ३०५ कर सब एकाकार हो रहा है । देवजी में आप-ही-आप इस सुमति का प्रादुर्भाव हुश्रा है- नाक, भ, पताल, नाक-सूची ते निकसि आए , चौदही भुवन भूखे भुनगा को भयो हेत; चींटी-अड-मड में समान्यो ब्रहमंड सब , सपत समुद्र बारि-बुंद मैं हिलोरे लेत । मिलि गयो मूल थूल-सूच्छम समूल कुल, पचभूतगन अनु-कन मैं कियो निकेत ; आप ही ते श्राप ही सुमति सिखराई "देव', नख-सिखराई मैं सुमेरु दिखराई देत । देवजी को राम की अनूठी, भावमयी उपासना का जैसा विशाल फल मिला, जिस प्रकार उनकी सुमति फिर गई, वह सब तो पाठकों ने देखा; अब यह भी तो जानना चाहिए कि आखिर यह राम हैं कौन ? सनिए, देवजी स्वयं बतलाते हैं- तुही पंचतत्त्व, तुही सत्त्व, रज, तम तुही, __थावर श्री जंगम जितेक भयो भव मैं; तेरे ये बिलास लौटि तो ही मैं समाने, कछु ___ जान्यो न परत, पहिचान्यो जव-जब मैं। देख्यो नहीं जात, तुही देखियत जहाँ-तहाँ , दूसरो न देख्यो “देव", तुही देख्यो अब मैं; सबकी अमर-मूरि, मारि सब धूरि करै , दूरि सब ही ते भरपूरि रह्यो सब मै। परंत ऐसे राम के दर्शन क्या सबको सुलभ हो सकते हैं ? क्या सब लोग ऐसे राम के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं ? क्या हमारे ये साधारण नेत्र इस दिव्य प्रकाश से पालोकित हो सकते हैं ? अहो ! इन पार्थिव चक्षुओं में तो माया का ऐसा
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