३१६ देव और विहारी ऐसा कौन-सा अभागा व्यक्ति होगा, जिसे जगत्प्रेसिद्ध सतसई के दो-चार दोहे न स्मरण होंगे ? यह बड़े ही श्रानंद का विषय है कि कविवर विहारीलाल ने इस समय अपनी सुख्याति को खूब विस्तृत कर लिया है। एक बार फिर सतसई पर समयानुकूल प्रचलित भाषा में विद्वत्ता पूर्ण सटीक ग्रंथ लिखे जाने लगे हैं, एक बार फिर सतसई की कीर्ति-कौमुदी के शुभ्रालोक में साहित्य-संसार जगमगा उठा है, यह कितने अभिमान और संतोप की बात है। विहारीलाल का एक-एक दोहा उनके गंभीर अध्ययन की सूचना देता है । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कवियों के काव्य का बड़े ही ध्यान के साथ मनन किया है । उनकी कविता में इन सभी कवियों के भावों की छाया पाई जाती है। विहारीलाल ने दूसरे का भाव लेकर भी उसे बिलकुल अपना लिया है। उनके दोहे पढ़ते समय इस बात का विचार भी नहीं उठता कि इस भाव को किसी दूसरे कवि ने भी इसी प्रकार अभिव्यक्त किया होगा । फिर भी सतसई के दोहों में पाए जाने. वाले भाव विहारीलाल के पूर्ववर्ती कवियों के काव्य में प्रचुर परिमाण में मौजूद हैं । हमने ऐसे भाव-सादृश्यवाले उदाह- रण एकत्र किए हैं। इनकी संख्या एक-दो नहीं, सैकड़ों है। हम यहाँ काव्यप्रेमी पाठकों के मनोरंजनार्थ विहारीलाल और उनके पूर्ववर्ती प्रसिद्ध कवियों से समान भाववाले कुछ उदा- हरण देते हैं। सदृश-भाववाले अनेक उदाहरण रहते हुए भी स्थल-संकोच के कारण प्रत्येक कवि का केवल एक-एक ही उदाहरण दिया जाता है। (१) भक की ईश्वर से प्रार्थना है कि मुझे जैसे-तैसे अपने दरबार में पड़ा रहने दो, मैं इसी को बहुत कुछ समझकर अपने को कृतकृत्य मानूंगा । विहारीलाल ने इस भाव को अपने एक
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