पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिशिष्ट दोहे में प्रकट किया है । कबीर साहब ने भी इस भाव को लेकर कविता की है। दोनों उनियाँ पाठकों के सामने उपस्थित हैं- मोमै इतनी शक्ति कहँ, गाऊँ गला पसार ; बंदे को इतनी धनी, पड़ा रहे दरबार । ____ कबीर हरि, कीजत तुमसों यह बिनती बार हजार ; जेहि-तेहि भाँति डरो रहौं, परो रहौं दरबार । विहारी (२) श्रीकृष्णजी ने अपने शरीर की भाव-भंगी से गोपी को अपने वश में कर लिया है । इस भाव-भंगी का वर्णन कवि ने अपनी चटकीली भाषा में किया है । महात्मा सूरदास ने पहलेपहल इस प्रकार के वर्णन से अपनी लेखनी को पवित्र किया है। फिर रसिक- चर विहारीलाल ने सूर के इसी भाव को संक्षेप में परंतु चुने हुए सजीव शब्दों में ऐसा सजाया है कि बस, देखते ही बनता है- नृत्यत स्याम स्यामा-हेत; मुकुट-लटकनि, भृकुटि-मटकनि नारि-मन मुख देन । कबहुँ चलत सुगध-गति सों, कबहुँ उघटत जैन ; लोल कुंडल गंड-मंडल, चपल. नैननि-सैन ; स्याम की छबि देखि नागरि रहीं इकटक जोहि, "सूर" प्रभु उर लाय लीन्हों प्रेम-गुन करि पोहि । सूरदास भृकुटी-मटकन, पीत पट, चटक लटकती चाल; चल चख-चितवनि चोरि चित लियो बिहारीलाल । विहारी (३) चंपकवर्णी नायिका के शरीर में चंपक, समान वर्ण का