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देव और विहारी
होने से, बिलकुल छिप जाता है। फूल और शरीर का रंग बिलकुल
एक जान पड़ता है। जब तक माला कुँभला नहीं जाती, शरीर
पर उसकी स्थिति ही नहीं मालूम पड़ती। गोस्वामी तुलसीदास
और विहारीलाल के इस भाव पर समान वर्णन पाए जाते हैं-
चपक-हरवा अँग मिलि अधिक साहाय :
जानि परै सिय-हियर जब कुँभिलाय ।
तुलसी
रच न लखियत पहिरियै कंचन-से तन बाल ;
कुँभिलाने जानी परे उर चंपे की माल 1.
विहारी
दोनों भावों में कितनी अनुकूल समता है। बिहारीलाल ने
कंचन-तन बढ़ाया है, पर तुलसी के वर्णन में कंचन के विना ही
चंपकवर्ण का विदग्धता-पूर्ण निर्देश है।
(४) पुतरी और पातुर का प्रसिद्ध रूपक केशवदास ने विहारीलाल
के बहुत पूर्व कह रक्खा था। फिर भी विहारीलाल ने इसी रूपक को
अपने नन्हें-से दोहे में अनोखे कौशल के साथ बिठाला है। रचना-
चातुरी इसी को कहते हैं। जान पड़ता है, भाव बिलकुल नया है-
काछे सितासित काछनी "केसव", पातुर ज्यो पुतरीन बिचारो ;
कोटि कटा नचै गति-भेद, नचावत नायक नेहनि न्यारो।
बाजतु है मृदु हास मृदंग-सो, दीपति दीपन को उजियारो;
देखतु हो, यह देखत है हरि, होत है ऑखिन में ही अखारो।
केशव
सब अँग करि राखी सुघर नायक नेह सिखाय;
रसयुत लेत अनंत गति पुतरी पातुरराय।
विहारी
(१) मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज यशवंतसिंह ने 'भाषा-भूषण"
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/३१०
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