पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/४५

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४८ देव और बिहारी

दृग-स्याह-मरीचि लपेटे ही रँग हुआ सोसनी-सेली का; जानी, यह तद्गण-भूषण है पँचरंगा हार चमेला का । सीतल (५) काल्हि ही गूंधि बबा कि सौं मै __गज-मोतिन की पहिरी अति श्राला; आई कहाँ ते इहाँ पुखराग की ? संग यई यमुना तट बाला । न्हात उतारी हौं "बेनीप्रर्वान", हसै मुनि बैनन नैन-रसाला ; जानति ना अॅग की बदली, सब सो बदली-बदली कहै माला। बेनीप्रवीन (६) नीचे को निहारत, नर्गाचे नैन, अधर दुबीचे पस्यो श्यामारुन आमा-अटकन को; नीलमानि भाग व पदुमराग द्वे के, पुखराग कै रहत बिध्यो के निकटकन को । "देव" विहँसत दुति दतन जुड़ात जोति, विमल मुकुत हीरालाल गटकन को; थरकि, थिरकि, थिर, थाने पर थाने तोरि । बाने बदलत नट मोती लटकन को । देव

  • कुछ लोगों की राय में खड़ी बोली में कविता नहीं हो सकती । हम यह बात

नहीं मानते । प्रतिभावान् कवि किसी भी भाषा में कविता कर सकता है । सीतल कवि की भाषा व्रजभाषा न होते हुए भी उक्ति-चमत्कार के कारण रमणीय है।