पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/४६

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भूमिका

इन सबके पृथक्-पृथक् गुणों पर विचार करने के लिये यहाँ पर आवश्यकता नहीं है । विदग्ध पाठक स्वयं प्रत्येक चमत्कृत उक्ति का आस्वादन कर सकते हैं। वंशी-ध्वनि एवं उसके प्रभाव का वर्णन सूरदास, विहारीलाल, देव एवं भोर-और हिंदी-कवियों ने अनोखे ढंग से किया है । यह वर्णन नितांत विदग्धता-पूर्ण और मर्म-स्पर्शी है । बँगला के कवि माइकेल मधुसूदनदत्त ने भी वंशी-ध्वनि पर कविता की है और बँगला-साहित्य-जगत् में उसका बहुत ही ऊँचा स्थान है । 'मधुप' की कृपा से, हिंदी-पाठकों के लिये, खड़ी बोली में, उसका अनुवाद निकल गया है । इनकी और देव की कविता के कुछ उदाहरण तुलना के लिये उद्धृत किए जाते हैं- (१) सुन सखि, फिर वह मनोमोहिनी माधव-मुरली बजती है। कोकिल अपनी कंठ-कला का गर्व सर्वथा तजती है । मलयानिल मेरे कानों में उस ध्वनि को पहुंचाती है ; सदा श्याम की दासी हूँ मैं, सुध-बुध भूली जाती है। ___ मधुसूदनदत्त यद्यपि श्याम की दासी कहती है कि मैं सुध-बुध भूली जाती हूँ, पर क्या यथार्थ में उसमें वह तन्मयता आ गई है कि अपने ऊपर उसका वश न रहा हो ? देखिए, हिंदी के प्रतिभावान् कवि, देव की गोपिका इसी वंशीध्वनि को सुनकर ऐसी तन्मय हो जाती है कि वंशी- ध्वनि की ओर ही भागी जाती है। यह वर्णन और ही प्रकार का है- राखी गहि गातनि ते, गातनि न रही, अधरातन निहारै अधरा-तन उसासरी; पिक-सी पुकारी एक निकसी बननि"देव", बिकसी कुमोदिनी-सी बदन बिकासुरी ।