पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५० देव और बिहारी

देव और विहारी मोही अबलाजन मरत, अब लाज औ ___ इलाज ना लगत, बधु, साजन उदासुरी; जागि जपि जी है बिरहागि उपजी है, अब जी है कौन, बैरिनि बजी है बन बाँसुरी ? देव (२) मधु कहता है-व्रजबाले, उन पद-पों का करके ध्यान जाश्रो, जहाँ पुकार रहे हैं श्रीमधुसूदन मोद-निधान । करो प्रेम-मधु-पान शीघ्र ही यथासमय कर यन-विधान ; यौवन के सुरसाल योग में काल-रोग है अति बलवान । मधुसूदनदत्त क्या वंशी-ध्वनि सनाकर भी कवि के लिये यह आवश्यकता रह गई कि वह ब्रज-बालाओं को श्याम के पास जाने की सलाह दे ? क्या अकेली वंशी-ध्वनि प्राकृष्ट करने के लिये पर्याप्त न थी ? देवजी की भी वंशी-ध्वनि सुन लीजिए और गोपिकाओं पर उसका प्रभाव विचारिए- घोर तरु नीजन विपिन, तरुनीजन है निकसी निसंक निसि आतुर, अतंक मैं ; गनै न कलंक मृदु-लंकान, मयंक-मुखी, पंकज-पगन धाई भागि निसि-पंक मैं। भूषननि भूलि पैन्हे उलटे दुकूल "देव", खुले भुजमूल प्रतिकूल बिधि बंक मैं ; चूल्हे चढ़े छाँई उफनात दूध-भाड़, उन सुत लॉर्ड अंक, पति छाँड़े परजंक मै । मुरली सुनत बाम कामजुर-लीन भई, धाई धुर लीक सुनि बिधी बिधुरनि सों;