५२ | देव और बिहारी |
कर हमारी यह अाशा सफल नहीं हुई-टीकाकार हमको स्थल-स्थल पर विहारीलाल के साथ अनुचित पक्षपात करता हुआ देख पड़ता है। विहारीलाल श्रृंगारी कवि थे । अतएव उनकी शृंगारमयी सुधा- सूक्लियों का हिंदी-भाषा के अन्य शृंगारी कवियों की तादृश उनियों से तुलना करना उचित ही था । पर इस प्रकार की जो तुलना हुई है, वह, खेद है, पक्षपात-पूर्ण हुई है। इस पक्षपात का चूड़ांत उदाहरण पाठकों को इसी बात से मिल जायगा कि देव-सदृश उच्च कोटि के श्रृंगारी कवि की कविता से विहारी के दोहों की तुलना तो दूर रही, उस बेचारे का नाम तक संजीवन-भाष्य के प्रथम भाग में नहीं आने पाया है। यदि देव और विहारी की तुलना होती और यह दिखलाया जाता कि विहारी- लाल देव से श्रेष्ठ हैं, तो बात ही दूसरी थी। ऐसी दशा में सर्व- साधारण के सामने उभय कविवरों के पद्य विशेष रहते और उन्हें अपनी राय भी कायम करने का मौका मिलता, चाहे वह राय विहारी के अनुकूल ही क्यों न होती; पर भाष्यकार महोदय ने ऐसा अवसर ही नहीं आने दिया, मानो दास, पद्माकर, तोष और सुंदर आदि कवियों से भी देवजी को हीन मानकर उनकी कविता से तुलना करना भाष्यकार ने व्यर्थ समझा । सूरदासजी का नाम तो लिया गया है, पर नकी कविता भी तुलनारूप में नहीं दिखलाई गई है । सारांश यह कि तुलना करते समय नाना प्रकार की पक्षपात- पूर्ण बातें लिखी गई हैं । इस पक्षपात का दिग्दर्शन कराने के लिये नीचे कुछ बातें लिखकर अब हम भूमिका समाप्त करते हैं, क्योंकि इसका कलेवर बहुत बढ़ गया है- [क] जिनका नाम तो संजीवन-भाष्य में लिया गया है, पर जिनकी कविता तुलनारूप में नहीं दिखलाई गई है, उन्हीं बेचारे सूरदास