पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/५०

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भूमिका

के भाव अपनाने में विहारीलाल ने किंचित् भी संकोच नहीं किया है । प्रमाण-स्वरूप यहाँ पर दोनों कवियों के बिंंब-प्रतिबिंबरूप केवल दो भाव उद्धृत किए जाते हैं । पाठक स्वयं निश्चय कर लें कि हमारा कथन कहाँ तक सच है । पर इस पुस्तक में सूर-विहारी की तुलना के लिये पर्याप्त स्थान नहीं है, इस कारण पाठको को इन दो ही उक्लियों पर संतोष करना होगा-

    (१) तो रस-राच्यो आन-बस कह्यो कुटिल, मति-कूर;
       जीभ निंबौरी क्यों लगै बौरी, चाखि अँगूर ?
                               विहारी

भाष्यकार को विहारीलाल के इस दोहे पर बड़ा 'गर्व' है- उसने इसकी भरपेट प्रशंसा की है, यहाँ तक कि इसको विहारीलाल का अपनी कविता के प्रति संकेत बतलाया है । दोहा निस्संदेह अच्छा है। पर 'जीभ निंबौरी'वाली लोकोक्ति विहारीलाल के मस्तिष्क की उपज नहीं है। वह लोकोक्ति-कमल तो सूर-प्रभा से इसके पूर्व ही प्रफुल्लित हो चुका है। देखिए-

         योग-ठगोरी ब्रज न बिकैहै।
       यह व्यापार तिहारो ऊधो ऐसे ही फिरि जैहै।
       जापै लै आए हौ मधुकर, ताके उर न समैहै ।
       दाख छाडिकै कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै ?
       मूरी के पातन के कोयना को मुक्ताहल दैहै ?
       "सूरदास" प्रभु गुनहि छोड़ि को निरगुन निरबैहै ?
                                   सूरदास
     (२) कहा लडैते हग करे ? परे लाल बेहाल :
      कहुँ मुरली, कहुँ पीत पट, कहूँ लकुट बनमाल ।
                                    विहारी 

यह दोहा भी परम प्रसिद्ध विहारीलाल की मनोरम उक्ति है ।