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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/७

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देव और विहारी बिलकुल अनजान बना रहता है और उस भाषा में कविता करने. वाले भी हतोत्साह होते जाते हैं । व्रजभाषा प्रांतिक भाषा होते हुए भी कई सौ वर्ष तक हिंदी- पद्य-काव्य की एकमात्र भाषा रही है। उन स्थानों के लोगों ने भी, जहाँ वह बोली नहीं जाती थी, उसमें कविता की है ।ब्रजभाषा मे मौलित वर्ण बहुत कम व्यवहृत होते हैं। उसी प्रकार दीर्वात शब्दों का प्रयोग भी अधिक नहीं है । रौद्र, वीर श्रादि को छोड़कर अन्य रसों के साथ कर्ण-कटु टवर्ग आदि का भी प्रयोग बचाया जाता है । इस कारण ब्रजभाषा, भाषा-शास्त्र के स्वाभाविक नियमा- नुसार, बड़ी ही श्रुति-मधर भाषा है। उसके शब्दों में थोड़े में बहुत कुछ व्यक्त कर सकने की शक्रि मौजूद है । वह अब भी प्रांतिक भाषा है और कई लाख लोगों द्वारा बोली जाती है । यह सत्य है कि उसमें श्रृंगार-रस-पूर्ण कविता बहुत हुई है. परंतु इसे समय का प्रभाव मानना चाहिए । यदि उस मध्ययुग में ऐसी कविता भी न होती, तो कविता का दीपक ही बुझ जाता; माना कि पालोक धुंधला था, पर रोशनी तो बनी रही। फिर धर्म की धारा भी तो उसने खूब बहाई है। उसमें की गई कविता हिंदी के पूर्व पद्य-काव्य-इतिहास को वर्तमान काल के साहित्य इतिहास से बड़ी ही उपादेयता के साथ जोड़ती है। राष्ट्रीयता के विचार से खड़ी बोली में कविता होनी चाहिए, परंतु चासर का भ्रामक उदाहरण देकर अब भी बोली जानेवाली ब्रजभाषा की कविता का अंत करना ठीक नहीं है। क्योंकि चासर ने जिस अँगरेज़ी में कविता की थी, वह अब कहीं भी नहीं बोली जाती । ब्रजभापा अपनी कविता में वर्तमान समय के विचार प्रकट

  • इस ओर भी हिंदी-पत्र-संपादकों ने उदारता का भाव ग्रहण किया

है जिसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं।