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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/७१

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रस-राज Manuswen. की प्रणय-लीला का प्रतिबिंब झलकता है। रति स्थायी के आलंबन विभावों में परस्पर समान आकर्षण रहता है। अन्य स्थायियों में.. परस्पर आकर्षण की बात आवश्यक नहीं है। शृंगार-रस के उद्दीपन विभाव भी परम मेध्य, सुंदर और प्राकृतिक सुषमा से मंडित हैं। इस रस के जो मित्र रस हैं, उनके साथ-साथ और सब रस भी शृंगार की छत्रच्छाया में पा सकते हैं। सो शृंगार सब रसों का राजा ठहरता है । अंगरेजी भाषा के धुरंधर समालोचक पारनल्ड की राय है * कि काव्य का संबंध मनुष्य के स्थायी मनो- विकार से है । यदि काव्य इन मनोविकारो का अनुरंजन कर सका, तो अन्य छोटे छोटे स्वत्वों के विषय में कुछ कहने की नौबत ही न आवेगी । सो स्थायी मनोविकारों का अनुधावन करते समय स्त्री-पुरुष की प्रीति-सृष्टि-सृजन का आदि कारण भी उसी के अंतर्गत दिखलाई पड़ता है। इसका स्थायित्य इतना दृढ़ है कि सृष्टि-पर्यंत इन स्थायी मनोविकारों (emanent passions ! का कभी नाश नहीं हो सकता । इसीलिये कवि लोग नायक-नायिका. के आलंबन को लेकर स्त्री-पुरुष की प्रीति का वर्णन करने लगे, करते रहे और करते रहेंगे। देवजी ने शृंगार को रस-राज माना है ।। ___ * Poetreal works belong to the domain of our permanent pas. sions. let them interest these and the voice of all subordinate claims upon them is at once silenced. । तीन मुख्य नौहू रसाने, द्वै-दै प्रथमानि लीन ; प्रथम मुख्य तिन तिहूँ मैं, दोऊ तिहि आधीन । हास्य रु भय सिगार-सँग, रुद्र-करुन सँग-बीर । अदभुत अरु बीमत्स-सँग बरनत सांत सुधीर । ते दोऊ तिन हुन-जुत बीर-सांत मेला संग होत सिंगार के, ताते सो रसराय ।