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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/७८

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८२ देव और विहारी सो श्रृंगार रस को रस-राज कहने में भापा-कवियों को दोष न देना चाहिए । मनोविकारों के स्थायित्व और विकास की दृष्टि से शृंगार-रस सचमुच सब रसों का राजा है । हम कुरुचि-प्रवर्तक कविता के समर्थक नहीं हैं; परंतु शृंगार-कविता के विरुद्ध जो श्राज कत धर्मयुद्ध-सा जारी कर रक्खा गया है, उसकी घोर निंदा करने से भी नहीं हिचकत हैं। कविता और नीति किसी भी प्रकार एक नहीं है। जैसे चित्रकार जाह्नवी का पवित्र चित्र खींचता है, वैसे ही 'वह श्मशान का भीपण घश्य भी दिखलाता है । वेश्या और स्वकीया के चित्र खींचने में चित्रकार को समान स्वतंत्रता है । ठीक इसी प्रकार कवि प्रत्येक भाव का, चाहे वह कितना ही घृणित अथवा पवित्र क्यों न हो, वर्णन करने के लिये स्वतंत्र है। कवि लोकोत्तर श्रानंद- प्रदान करते हुए नीति भी कहता है, उपदेश भी देता है। पर उपदेश-हीन कविता कविता ही न हो, यह बात नितांत भ्रम-पूर्व है। कविता के लिये केवल रस-परिपाक चाहिए । उपयोगितावाद के चक्कर में डालकर ललित कला का सौंदर्य नष्ट करना ठीक नहीं। प्राचीन हिंदी-कवियों ने इसी रस-राज का आश्रय आवश्यकता से भी अधिक लिया है । अतएव हिंदी कविता में शृंगार-रस- प्रधान ग्रंथों की प्रचुरता है । श्रृंगारी कवियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है, इस विषय में मतभेद है-अभी तक कोई बात स्थिर नहीं हो सकी है। महात्मा तुलसीदासजी शृंगारी कधि नहीं कहे जा सकते, यद्यपि स्थल विशेष पर श्रावश्यकतानुसार इन्होंने पवित्र शृंगार-रस के सोते बहाने में कोई कसर नहीं उठा रक्खी है । पर 'सुरति' और 'विपरीत' के भी स्पष्ट सांगोपांग वर्णन करनेवाले महात्मा सूरदासजी को भंगारी कवियों की पंक्ति में न बैठने देना अनुचित प्रतीत होता है। तो भी सूरदासजी तुलसीदासजी-सदृश भक्त कवियों की पंक्रि से भी अलग नहीं किए जा सकते और इसलिये एकमात्र