रस-राज
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शृंगारी कवि नहीं कहे जा सकते। 'रामचंद्रिका' और 'विज्ञान-गीता'
के रचयिता कविवर केशवदासजी वास्तव में 'कविप्रिया' एवं 'रसिक-
प्रिया'-प्रकृति के पुरुष थे । शृंगारी कवियों की श्रेणी में इनका
सम्माननीय स्थान है। इन्होंने 'भंगार' अधिक किया, पर 'शांत'
भी रहे । बिलकुल शृंगारी कवि इन्हें भी नहीं कह सकते, क्योंकि
'रामचंद्रिका' और 'कविप्रिया' दोनों ही समान रूप से इनकी
यशोरक्षा में प्रवृत्त हैं।
कविवर विहारीलालजी की सुप्रसिद्ध 'सतसई हिंदी कविता का
भूषण है । दस-बीस दोहे अन्य रसों के होते हुए भी वह शृंगार-रस
से परिपूर्ण है । सतसई के अतिरिक्त विहारीलालजी का कोई दूसरा
ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । कहा जाता है, कविवर का काव्य-कौशल
इस ग्रंथ के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं प्रस्फुटित नहीं हुआ है । सो
विहारीलाल वास्तव में शृंगारी कवि हैं।
'देव-माया-प्रपंच', 'देव-चरित्र' एवं 'वैराग्य-शतक' के रचयिता
होते हुए भी कविवर देवजी ने अपने शेष उपलब्ध ग्रंथों में, जिनकी
संख्या २३ या २४ से कम नहीं है, शृंगार-रस को ही अपनाया है।
'सुख-सागर-तरंगों में विमल-विमलकर परिभावित होते हुए जो
'विलास' इन्होंने किए हैं एवं तजन्य 'विनोद' में जो 'काव्य-रसा-
यन' इन्होंने प्रस्तुत की है, उसका पास्वादन करके कविता-सुंदरी का
शृंगार-सौंदर्य हिंदी में सदा के लिये स्थिर हो गया है। ऐसी दशा
में देवजी भी सर्वथा श्रृंगारी कवि हैं।
अन्य बड़े कवियों में कविवर मतिराम और पद्माकर शृंगारी
कवि हैं। इनके अतिरिक शृंगारी कवियों की एक बड़ी संख्या
उपस्थित की जा सकती है । देव और विहारी इन शृंगारी कवियों
के नेता-से है।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/७९
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