भाव-सादृश्य
जायगा । तारे भी निष्प्रभ हो खद्योत की भाँति टिमटिमाते देख
पड़ेंगे।"
कहने का तात्पर्य यह कि कविता-संसार में अपने पूर्ववर्ती
कवियों की कृति से लाभान्वित होना एक साधारण-सी बात हो गई
है। पर एक बात का विचार आवश्यक है । वह यह कि पूर्ववर्ती
कवि की कृति को अपनानेवाला यथार्थ गुणी होना चाहिए। अपने
से पहले के साहित्य-भवन से जो ईंट उसे निकालनी चाहिए, उसे
नूतन भवन में कम-से-कम वैसे ही कौशन से लगानी चाहिए। यदि
वह ईंट को अच्छी तरह न बिठाल सका, तो उसका साहस, व्यर्थ-
प्रयास होगा। उसकी सराहना न होगी, बरन् वह साहित्य का चोर
कहा जायगा। पर यदि वह ईंट को पूर्ववर्ती कवि से भी अधिक
सफाई के साथ बिठालता है, तो वह ईंट भले ही उसकी न हो, पर
वह निंदा का पात्र नहीं हो सकता। उसे चोर नहीं कह सकते।
यह मत हमारा ही नहीं है-संस्कृत और अँगरेज़ी के विद्वान्
समालोचकों की भी यही राय है।
कविता के भाव-सादृश्य के संबंध में ध्वन्यालोककार कहते हैं
कि जिस कविता में सहृदय भावुक को यह सूझ पड़े कि इसमें
कुछ नूतन चमत्कार है, फिर चाहे उसमें पूर्व कवियों की छाया ही
क्यों न दिखलाई पड़े-भाव अपनाने में कोई हानि नहीं है-उस
कविता का निर्माता सुकवि, अपनी बंधछाया से पुराने भाव को
नूतन रूप देने के कारण, निंदनीय नहीं समझा जा सकता।
यह तो संस्कृत के आदर्श समालोचक की बात हुई, अब अँगरेज़ी
- यदपि तदपि रम्यं यत्र लोकस्य किश्चित्
स्फुरितमिदमितीयं बुद्धिरभ्युजिहीते ; अनुगतमपि पूर्वच्छायया वस्तु तादृक् सुकविरुपनिबनन् निन्धतां नोपयाति ।