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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/८७

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भाव-सादृश्य है . कौड़ा आँसू-बूंद, कसि सॉकर-बरुणी सजल ; कीन्हें बदन निमूंद, दृग मलग डारे रहत । बरुनी-बघंबर मै गूदरी पलक दोऊ, कोए राते बसन भगौहें मेष-रखियाँ ; बूड़ी जल ही मैं दिन-जामिन हूँ जागै, भौहै धूम सिर छायो, बिरहानल-बिलखियाँ । अँसुश्रा फटिकमाल, लाल डोरे सेल्ही पैन्हि, भई है अकेली तजि चेली सग सखियाँ ; दीजिए दरस "देव', कीजिए सँजोगिनि,ये जोगिनि लै बैठी हैं बियोगिनि की अखियाँ। ऊपर जो दो कविताएँ दी हुई हैं, उनमें से पहली का रचयिता पूर्ववर्ती और दूसरी का परवर्ती है। हमारी राय में परवर्ती कवि ने पूर्ववर्ती का भाव न लेकर अपनी स्वतंत्र रचना की है। पर हिंदी-भाषा के एक मर्मज्ञ समालोचक की राय है- "ऊपरवाले सोरठे को पढ़कर परवर्ती कवि ने वह भाव चुराया है, जिस पर कुछ लेखकों को बड़ा घमंड है।" जो हो, देखना तो यह है कि परवर्ती कवि ने भावापहरण करके उसमें कोई चमत्कार भी उत्पन्न किया है या नहीं? संभव है, हमारी राय ठीक न हो, पर बहुत सोच-समझकर ही हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि सोरठे से घनाक्षरी छंद बहुत रमणीय बन गया है । कारण नीचे दिए जाते हैं- (१) मन पर पुरुष की तपस्या की अपेक्षा स्त्री की तपस्या का अधिक प्रभाव पड़ता है। सहनशील पुरुष को तपश्चर्या में रत पाकर हमारी सहानुभूति उतनी अधिक नहीं प्राकर्षित होगी, जितनी