भाव-सादृश्य समझे कि हम परवर्ती कवि को 'सुकवि' नहीं मानते । हम जब 'चोर' शब्द का प्रयोग करते हैं, तो उसका संबंध केवल रचना विशेष से ही है । उदाहरण लीजिए- जानति सोति अनीति है, जानति सखी सुनीति ; गुरुजन जानत लाज हैं, प्रीतम जानत प्रीति । . (२) प्रीतम प्रीतिमई उनमानै, परोसिनी जानै सुनोतिहि सोहई ; लाज-सनी है बड़ी निमनी बरनारिन मै सिरताज गनी गई। राधिका को ब्रज की युवती कहै, याही सोहाग-समूह दई दई ; सौति हलाहल-सोती कहै औ सखी कहैं सुदरि सील सुधामई । दोहे की रचना सवैया से पहले की है। स्वकीया नायिका का चित्र दोनों ही कविताओं में खींचा गया है । दोहे के भाव को सवैया में विस्तार के साथ दिखलाने का उद्योग किया गया है। किंतु पूर्ववर्ती कवि का वर्णन-क्रम चतुरता से भरा हुआ है। __ सपत्नियाँ परस्पर एक दूसरे को शत्रु से कम नहीं समझती। एक ही प्रेम-राशि को दोनों ही अपने अधिकार में रखना चाहती हैं, फिर भला मेल कैसे हो ? तिस पर भी दोहे की स्वकीया को सौति अनीति ही समझती है-उसमें नीति का अभाव मानती है । अपने सर्वस्व प्रेम को बँटा लेनेवाली को वह अनीति तो कहेगी ही। अब क्रम-क्रम से आदर बढ़ता है। सखियाँ उसे सुनीति समझती हैं। गुरुजन-जिसमें सास, जेठानी आदि सम्मिलित हैं-उसे लजा की मूर्ति समझती हैं। प्रादर और भी बढ़ गया। उधर प्राणप्यारा तो उसे प्रीति की प्रतिमा ही समझता है। श्रादर पराकाष्ठा को पहुँच गया । कवि ने उसका कैसा सुंदर विकास दिखलाया ! आदर के क्रम के समान ही 'परिचय' की न्यूनता और अधिकता का विचार
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