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पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/९०

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देव और विहारी भी दोहे में है। ईपविश सौतें उससे कम मिलती हैं, इसलिये वे उसे अनीति समझती हैं । सखियों का हेलमेल सौतों की अपेक्षा उससे अधिक है, अतः वे उसे सुनीति समझती हैं । सास श्रादि की सेवा में स्वयं लगी रहने के कारण उनसे परिचय और गहरा है; वे उसे लज्जा की मूर्ति समझती हैं। प्रियतम से परिचय अति घनिष्ठ है। वह उसे साक्षात् प्रीति ही मानता है। श्रादर और परि- चय दोनों के विकास-क्रम का प्रकाश दोहे में अनूठा है । परवर्ती कवि ने उस क्रम को सवैया में बिलकुल तहस-नहस कर डाला है। वह पहले प्रीतम का कथन करता है । खयाल होता है कि क्रमशः ऊपर से नीचे उतरेगा, अत्यंत प्रियपान, अत्यंत घनिष्ट प्रियतम से लेकर क्रम से उससे कम घनिष्ट तथा कम प्रीति-पान लोगों का कथन करेगा। प्रियतम के बाद परोसिनों का ज़िक्र होता है, घर के गुरुजन न-जाने क्यों प्रकट में नहीं वर्णित हैं । तर, फिर ब्रज की युवतियों की पारी पाती है, तब सौतों का कथन होता है । यहाँ तक तो सीढ़ियाँ चाहे जैसी बेढंगी रही हों, पर उतार ठीक था। श्राशा थी कि सौतों के बाद हम फर्श पर पहुंचकर कोई नया कौतुक देखेंगे, पर वह कहाँ, यहाँ तो फिर एक जीना ऊपर की ओर चढ़ना पड़ा-सखियाँ उसे 'सील सुधामई' कहने लगीं । कवि ने यहीं, बीच ही में, पाठकों को छोड़ दिया । मतलब यह कि संवैया में क्रम का कोई विचार नहीं है । दोहे के भावों को श्रव्यवस्थित रूप में, जहाँ पाया, भर दिया है। दोहे का दृढ़ संगठन, उचित क्रम तथा स्वकीयत्व-परिपोषक संपूर्ण शब्द-योजना सवैया में नहीं है। उसका संगठन शिथिल, क्रम-हीन तथा कई व्यर्थ पदों से युक्त है। अधिकता दोहे से कुछ भी नहीं है । परवर्ती कवि ने पूर्ववर्ती कवि का भाव लिया है। भाव लेकर न तो वह पूर्ववर्ती कवि की बराबरी कर सका है और न उससे श्रागे निकल सका है।