काव्य-कला-कुशलता
इस अध्याय में अब हम यह दिखलाना चाहते हैं कि उभय कवि-
वर काव्य-कला में कैसे कुशल थे। पहले हम देवजी को ही लेते हैं
और उनकी अनुपम काव्य-चातुरी के कुछ उदाहरण नीचे देते हैं-
१-देव
(3) पति निश्चयपूर्वक श्राने को कह गया था, पर संकेत-
स्थान में उसे न पाकर नायिका संतप्त हो रही है । उसकी उत्कंठा
बढ़ रही है । ग्रीष्म ऋतु की दोपहरी का समय है । इसी काल
नायक ने आने का वचन दिया था। कविवर देवजी ने उत्कंठिता
नायिका की इस विकलता को स्वभावोक्ति अलंकार पहनाकर सच-
मुच ही अलौकिक आनंद-प्रदान करनेवाला बना दिया है । ग्रीष्म-
ऋतु की दोपहरी में ठंढे स्थानों पर पड़े लोगों का खर्राटे लेना, वृक्षों
की गंभीर छाया में पिकी का ठहर-ठहरकर बोल जाना और विकच
पुष्प एवं फल-परिपूर्ण कुंजों में भ्रमर-गुंजार कितना समुचित है।
विषमता का आश्रय लेकर देवजी अपने काव्य-चित्र में अपूर्व रंग
भर देते हैं । कहाँ तो ग्रीष्म-मध्याहू का ऊपर-कथित दृश्य और
कहाँ भोली किशोरी का कुम्हलाया-सा वदन ! बार-बार छत पर
चढ़ना, हाथ की ओट लगाकर प्रियतम के आनेवाले मार्ग को निहा-
रना और आते न देखकर फिर नीचे उतर आना, इस प्रकार धीरज
से पृथ्वी पर चरण-कमलों का रखना कितना मर्म-स्पर्शी है। चिल-
चिलाती दोपहरी में प्रखर मार्तड की ज्योति के कारण नेत्रों की
झिलमिलाहट बचाने के लिये अथवा लज्जा-संकोच से हथेली की
ओट देखना कितना स्वामाविक है। फिर निदाय में मध्याह्न के
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/९८
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