पृष्ठ:दो बहनें.pdf/१००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
दो बहनें

और मौज का अन्त नहीं था। हेमन्त और शशांक ने मिलकर चहल-पहल की धूम मचा दी थी। ऊर्मि अपनी एक मौसी से बुनाई का एक नया काम सीखकर आई थी। भैया के जन्मदिन पर देने के लिये एक जोड़ा जूता बुनने लगी। शशांक ने मज़ाक़ में कहा, "भैया को चाहे और जो दो, जूता मत दो। भगवान् मनु ने कहा है, ऐसा करने से गुरुजन का असम्मान होता है।" ऊर्मि ने व्यंग्य करके कहा, "भगवान् मनु ने इस वस्तु का प्रयोग किसपर करने को कहा है?"

शशांक ने मुँह गम्भीर करके कहा, "असम्मान का सनातन अधिकार बहनोई को है। यह मेरा पावना है, सूद समेत अब भारी हो आया है।"

"याद तो नहीं पड़ता।"

"याद पड़ने की बात नहीं है। उस समय तुम निहायत नावालिग़ थीं। इसीलिये जिस दिन शुभ लग्न में तुम्हारी दीदी के साथ इस सौभाग्यवान का विवाह हुआ था उस दिन सुहागरात के कर्णधार का पद तुम नहीं ग्रहण कर सकी। आज उस कर-पल्लव की अरचित कान-मलाई इस करपल्लव-रचित जते के जोड़े में रूप ग्रहण कर रही है। इसके ऊपर मेरा दावा है सो कहे देता हूँ।"

८७