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दो बहनें

हो। ज़रा उसकी हिमाकत तो देखो! पैरों का माप साथ भेज रहा हूँ।"

चिट्ठी पाकर ऊर्मि स्मित हास्य के साथ जूता बुनने बैठी थी किन्तु ख़त्म नहीं कर सकी। काम में उसका उत्साह नहीं रह गया था। आज इस असमाप्त जूते का आविष्कार करके उसने स्थिर किया कि इसे दार्जिलिंगयात्रा के वार्षिक दिन को वह शशांक को उपहार देगी, और कुछेक सप्ताह बाद ही वह दिन आनेवाला था। उसने गहरी लंबी साँस ली--कहाँ गए वे दिन जो हँसी से उज्ज्वल आकाश में हल्के पंखों पर उड़ जाया करते थे! आज तो अवकाशहीन कर्तव्य-कठोर मरु-जीवन सामने फैला हुआ है!

आज होली का दिन है। मुफ़स्सिल के काम से आज होली खेलने में शशांक को योग देने का समय प्राप्त नहीं था। इस दिन की बात वे लोग भूल ही गए थे। ऊर्मि ने आज शय्यागता दीदी के चरणों में अबीर चढ़ाकर प्रणाम किया। इसके बाद खोजती-खोजती शशांक के आफ़िस के कमरे में जा पहुँची जहाँ वह डेस्क पर झुका हुआ लिख रहा था। पीछे से जाकर ऊर्मि ने उसके सिर पर अबीर मल दी, काग़ज़ पत्र लाल हो उठे। फिर तो मत्तता का ज़ोर शुरू

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